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अध्यात्म के परिपार्श्व में
साकारित करती हैं, महावीर-धर्म का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करती है। यही महावीर की धर्मक्रांति के संवाहक हैं, समाज का, मानव जाति का हित करने वाले हैं। उधर श्रावक अणुव्रतों का पालन करते हैं। मुनियों की भांति वह पूर्णतः अहिंसा-धर्म पर नहीं चल सकते, पूर्णतः अपरिग्रही या निस्पृही नहीं बन सकते। उन्हें अपनी जीविका के लिए खेती-बाड़ी करनी पड़ती है, नौकरी, मजदूरी करनी पड़ती है । जैनधर्म अहिंसा का प्रमुख प्रचारक है। वह मनुष्य की हत्या न करने का आदेश तो देता ही है, इससे भी आगे वह जीवहत्या का पूर्णतः निषेध करता है। किसी को मानसिक, शारीरिक, वैचारिक कष्ट पहुंचाना भी यहां हिंसा माना गया है ।
महावीर ने यह भी कहा-'सर्वाहारं न भुंजते निर्ग्रन्था रात्रिभोजनम्' अर्थात् निर्ग्रन्थ रात्रि-भोज नहीं करते। जैनधर्म में मांस-मछली, अण्डा, सभी का पूर्णतः निषेध किया गया है, फलस्वरूप शाकाहार के प्रचार-प्रसार पर बल दिया गया है । अपने देश में तो शाकाहार का प्रचार-प्रसार चल ही रहा है, यूरोप और अमेरीका, कनाडा आदि देशों में भी इसका प्रचार जोरों पर है। अमेरीका में ७ लाख गायों का वध प्रतिवर्ष होता है, उसको रोकने के लिए जैनधर्म ने गौशालाएं बनवाने के कदम उठाये हैं।
आज संसार में वैचारिक द्वन्द्व अधिक है, मानसिक तनावों में रहताजीता है आज का मनुष्य । उसके तनाव को, टेंशन को रोका जा सकता है महावीर की अनेकांत दृष्टि से । संसार अस्त्र-शस्त्र की होड़ में अशांत है। रूस, अमेरीका दोनों महाशक्तियों के पास ५० हजार आण्विक हथियार हैं कि इस संसार को कई बार नष्ट किया जा सकता है। हथियारों की होड़ रोकने के लिए भारत के प्रधानमन्त्री ने भी छः देशों की समिति गठित कर जनमानस को, लोकमत को जगाना चाहा है। महावीर ने अनेकांतवाद द्वारा मतविरोध को समाप्त कर समन्वयवादी दृष्टि प्रदान की है। उन्होंने कहा"वस्तुओं के अनन्त धर्मों और पर्यायों को अनन्त चक्षुओं से देखो, उन्हें किसी एक चक्षु से मत देखो। जो व्यक्ति वस्तु-सत्य को एक चक्षु से देखता है वह अपने स्वीकृत सिद्धान्त का समर्थन और दूसरों की स्वीकृतियों का खंडन करता है।" एकान्तवादी, परिग्रहवादी, एक दृष्टि या मनोदशा है इससे संघर्ष उत्पन्न होता है । एकांतवादी दृष्टि से व्यवहार में बाधा पड़ती है, अनेकांतवादी दृष्टि में समता, सापेक्षता का भाव होने से वह मान्य है । 'सूत्रकृतांग' में कहा गया है-'पदार्थ नित्य ही है या अयित्य ही है यह मानना अनाचार है। पदार्थ तो नित्य और अनित्य दोनों है, यही आचार है।" अनेकांतवाद जैनदर्शन की एक अद्वितीय, महत्त्वपूर्ण और मौलिक देन है। एक ऐसी व्यावहारिक जीवनदृष्टि है जिसके द्वारा हम विरोध व विषमता समाप्त कर सकते हैं। संसार
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