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हावीर का धर्म : व्यावहारिक रूप
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जो कुछ श्रेयस्कर और मंगलदायक है, कल्याणकारी है वही धर्म है । महावीर का धर्म-तीर्थ दुःखों का हनन करने वाला है, भवसागर से संतरण करने वाला है । तीर्थ - निमित्त से ही संसार को तिरा जा सकता है - " तरति संसार महार्णवं येन निमित्तेन तत्तीर्थममिति" ( विद्यानंद) तीर्थंकर महावीर की वाणी है - " धम्मो सुद्धस्स चिट्टइ" - धर्म मानसिक विशुद्धि में विराजमान है । निर्मल चित्त वाला, आचार-विचार की पवित्रता वाला परम सुख प्राप्त कर सकता है। गीता में कहा गया है कि जो धर्म विषाद-मुक्त नहीं करता वह धर्म एक प्रकार से जीवन-शोधन, आत्म-शोधन की प्रक्रिया का नाम है जिसके लिए संयम की अत्यधिक आवश्यकता है । संयम से हमारे आचार-विचार का विरेचन होता है । लेकिन संयमी बनने के लिए तप साधना की अपेक्षा रहती है । तप-साधना व्यष्टिगत या समष्टिगत धरातलों पर करनी पड़ती
है ।
महावीर ने जब अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की बात कही और अनेकांत तथा स्याद्वाद का मार्ग दर्शाया तो धर्म को अधिक व्यावहारिक बनाया | धर्म की सामूहिक आराधना धर्मसंघ द्वारा परिसम्पन्न होती है । जैनधर्म संघ - प्रधान धर्म है । धर्मसंघ प्रधान होने पर धर्म की मर्यादाओं का व्यक्ति को अनुपालन करना पड़ता है। जैन धर्मसंघ चार अंगों का समावेश है - साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका । साधु-साध्वी को पांच महाव्रतों का पूर्णतः परिपालन करना पड़ता है । वे विषयेच्छा विहीन होते हैं, न किसी का अनिष्ट करते हैं, न अनिष्ट सोचते हैं। साधु जीवन निस्पृहता का, वीतरागत्व का जीवन होता है। सदा हित- मित वचन बोलते हैं । अनुशासन, संयम, मर्यादा का वह पूर्णतः परिपालन करते हैं । साधु-मुनि मान-अपमान से ऊपर होते हैं, साम्प्रदायिक आग्रह से भी बहुधा ऊपर उठे होते हैं । वैसे जैन धर्म कई एक सम्प्रदायों, वर्गों, गच्छों में विभक्त है फिर भी सभी सम्प्रदाय के साधु-मुनि, साध्वियां आचरण में, व्यवहार में पावनता, संयम, मर्यादा का मार्ग अपनाते हैं । उनकी पद यात्राएं धर्म का प्रचार करने में बहुत सहायक हैं । दूर-दूर जाकर लोगों को धर्म की रोशनी देते हैं । ऐसा लगता है जैसे तीर्थराज उनके पास स्वयं पहुंच गया हो । तुलसी ने साधु-सन्तों की गुण - वंदना में ठीक ही कहा है
मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथराजू ॥ रामभक्ति जह सुरसरि धारा, सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ॥ बिनु संतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु मुलभ न सोई ॥
(रामचरितमानस)
जैन मुनियों का पावन विहार या उनकी आहार प्रणाली धर्म को
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