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महावीर का धर्म : व्यावहारिक रूप
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने धर्म के विषय में कहा है-"सत्यस्वरूप की व्यक्ति प्रवृत्ति अर्थात् धर्म की ऊंची-नीची कई भूमियां लक्षित होती हैं, जैसे गृह-धर्म, कुल-धर्म, समाज-धर्म, लोक-धर्म और विश्व-धर्म या पूर्ण धर्म । किसी परिमित वर्ग के कल्याण से सम्बन्ध रखने वाले धर्म की अपेक्षा विस्तृत जनसमूह के कल्याण से सम्बन्ध रखने वाला धर्म उच्च कोटि का है । धर्म की उच्चता उसके लक्ष्य के व्यापकत्व के अनुसार समझी जाती है। गृह-धर्म या कुल-धर्म से समाज-धर्म श्रेष्ठ है, समाज-धर्म से लोक-धर्म, लोक-धर्म से विश्व-धर्म जिसमें धर्म अपने शुद्ध और पूर्ण धर्म में दिखाई पढ़ता है।" महावीर का धर्म विश्व-धर्म है, शाश्वत धर्म है क्योंकि उसमें सकल प्राणियों के दुःखों का निवारण करना, उन्हें दुखविमुक्त करना और उत्तम सुख तक पहुंचाने का मार्ग दर्शाया गया है। आचार्य समन्तभद्र ने इसी धर्म को यों भभिव्यंजित किया है
देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम । संसार दुखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।
(रत्नकरण्डक) यही महावीर का 'सर्वोदर्य धर्म' या 'सर्वोदय तीर्थ' है। तुलसीदास ने परहित को महाधर्म माना है, अहिंसा को परम धर्म कहा है
परम धरम श्रति विदित अहिंसा । पर-निन्दा सम अघ न गरीसा ॥ परहित सरिस धरम नहिं भाई । पर-पोडा सम नहिं अधमाई ॥
(उत्तरकाण्ड) महाभारत में धर्म के स्वरूप का इस प्रकार प्रतिपादन किया गया
धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम् ।
धर्माल्लोका प्रस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः ।। धर्म जीवों का हित है, सत् पुरुषों का आश्रय है, चराचर तीनों लोकों का परिसंचालन इसी से है, यही लोक और जीवन का आधार है। वास्तव में
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