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अध्यात्म के परिपार्श्व में
गौरव, भय, दण्ड, शोक और बन्धनहीन रहने वाला मोक्ष प्राप्त कर सकता है । यहां भी समभाव की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है
निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवे। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु यम ।।८९॥ लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ ॥९०॥
-उत्तराध्ययन-३९ 'गीता' में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को सभी स्थितियों में चाहे अनुकूल हों या प्रतिकूल समभाव धारण करने का उपदेश दिया है। लाभ हो या हानि, सफलता मिले या असफलता, दोनों दशाओं में समत्वभाव रखना चाहिए
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय। सिद्ध्य सिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
-गीता २,४८ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
—गीता; ६-३२ हे धनंजय ! आसक्ति छोड़कर, कर्म की सिद्धि हो यो असिद्धि, दोनों को समान ही मानकर योगस्थ होकर कर्म करे। यहां योग को ही समता कहा गया है । हे अर्जुन ! सुख हो या दुःख, अपने समान औरों को भी होता है। जो व्यक्ति ऐसी आत्मौपम्य दृष्टि सर्वत्र रखे वह कर्मयोगी ही सर्वोत्कृष्ट माना जाता है । भगवान् कृष्ण कहते हैं कि जिसे सुख-दुःख एक से ही हैं, जो स्वस्थ है; अर्थात् अपने में ही स्थिर है; मिट्टी, पत्थर, सोना जिसे समान है, जो सदा धैर्ययुक्त है, जिसे मान-अपमान, मित्र-शत्रु समान है, जिसके सब उद्योग छूट गए हैं वह व्यक्ति गुणातीत है---
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचनः । तुल्यप्रियाप्रियौ घीरतुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।। मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥
गीता-१४१२४,२५ । सामायिक समत्व एवं एकत्व की साधना है, अपने को जानने-पहिचानने की साधना है। सामायिक स्वरूप का अनुसंधान है, जिसमें ज्ञानाचार का मणि-कांचन योग है। समत्व के संस्कारों का बीजारोपण करने का अनुष्ठान है यह । इसे हमें कर्मकाण्ड के आवरण में लपेट कर धूमिल नहीं
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