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सामायिक : अर्थ और स्वरूप
समान 'भाव-की-शुद्धता' भी सामायिक की एक शुद्धता है। समत्व की साधना सामायिक है। हम समभाव धारण करें, समताभाव में लीन रहें और द्वेष-घृणा से दूर रहकर सदा आत्मपरीक्षण-आत्मनिरीक्षण करते रहें।
सामायिक से समभाव का विकास होता है, पापवृत्तियों का विनाश होता है । सामायिक का धर्म समतामय है। जो सामायिक करता है उसमें शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता, ऐसी समदृष्टि का विकास करती है सामायिक
सावधयोग विरतेरभ्यासो जायते ततः ।
समभावविकासः स्यात् तच्च सामायिकं व्रतम् ।।
सात्विक प्रवृत्तियों का उदय होता है सामायिक द्वारा, इससे आत्मविश्वास की कायिक, मानसिक और वाचिक सब प्रकार की सत्प्रवृत्तियों का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। सामायिक करने वाला व्यक्ति द्वन्द्वों से पार चला जाता है।
'मूलाचार' में आत्मा को पापास्रव से दूर करने के लिए सामायिक को उत्तम उपाय बताया है । ज्ञान की आत्मा से एकत्व या समत्व स्थापित करने को सामायिक कहा है (मूलाचार ७।२३)। जैन दर्शन में ज्ञान और विवेक का महत्व अत्यधिक है; मुनियों के तो उठने-बैठने, खाने-पीने आदि में नियमों का विधान है ताकि उन्हें कोई पाप न लगे। सावधानी या विवेक से चलना, खड़े होना, बैठना, सोना, खाना-पीना, बोलना---इनसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता । पाप का मूल प्रमाद है, अविवेक है। मनुष्य को तनिक-सी लापरवाही और असावधानी से पापकर्म उसे अपने अभिशाप में जकड़ लेते हैं।
जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासन्तो पावं कम्मं न बंधई ।।
नित्य-नैमित्तिक क्रिया-विशेष तथा सामायिक का प्रतिपादक शास्त्र भी सामायिक कहा जाता है । समत्व की साधना का वर्णन 'किसी-न-किसी रूप में सभी धर्मग्रन्थों में, आध्यात्मिक रचनाओं में प्राप्य है, और इस प्रकार की साधना सभी कर सकते हैं; समता और संयम के मार्ग पर चलने वाला किसी भी वर्ग, सम्प्रदाय या धर्म का व्यक्ति कर सकता है, इसके लिए जैन होना भी आवश्यक नहीं । यों तो अनेक जैन हैं; लेकिन उनमें समत्वदृष्टि का अभाव मिल सकता है। मनुष्य को सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव रखना चाहिए । सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-हानि, प्रशंसा-निन्दा में हमें समभाव रखना चाहिए, समता में रहना चाहिए, ममत्व और अहंकार छोड़ना चाहिए, निर्लेप भाव रख कर बस-स्थावर सभी जीवों में समभाव रखना चाहिए।
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