________________
सामायिक : अर्थ और स्वरूप
मोक्षगामी बनते हैं। आज हम धन संग्रह में ही परमानन्द, परमसुख समझते हैं, परन्तु स्वर्ण के असंख्य भण्डार भी, राज्य की वैभव-सम्पदा भी एक सामायिक से तुच्छ है । धन से सामायिक नहीं खरीदी जा सकती । महाराजा श्रेणिक धर्मानुरागी पूनिया की सामायिक अपार धन देकर भी नहीं खरीद सका, कोई नहीं खरीद सका। भगवान महावीर ने कहा था कि यदि कोई स्वर्ण के ढेरों से चांद-सूरज को भी छू ले तो भी सामायिक का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता । स्वर्ण-दान से भी श्रेष्ठ है सामायिक
दिवसे-दिवसे लक्खं, देह सुवण्णे से खंडिय रग्गो ।
एणो पुण सामाइयं करेई, न पहुप्पए तस्स ।।
सामायिक अभिव्यक्ति नहीं, अनुभूति है। इसमें समभाव का प्राधान्य है, उसी समभाव को जिसे आज का विषमभाव ल ल गया है । सामायिक करते समय हमें यह देखना चाहिए कि हमारा शत्रुभाव, ईर्ष्याभाव, परिग्रहभाव, क्रोधभाव, हिंसाभाव कितना कम हुआ है, काम-वासना, तृष्णा-लोभ में कितनी कमी आयी है। रूढ़ियों का अनुपालन करना सामायिक नहीं, सामायिक है रूढ़ियों को परिमार्जित करना, भावना को शुद्ध बनाना- भावों क. परिष्कार करना । आचार्य अमितगति ने सामायिक द्वात्रिंशिका' में कहा
सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम् माध्यस्थ-भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदघातु देव ॥
अर्थात् हे प्रभो ! मेरी आत्मा सदा सभी प्राणियों के लिए मैत्री भाव रखे, गुणशील व्यक्ति को देखकर उसे आनन्द प्राप्त हो, दुःख-क्लेश में फंसे व्यक्तियों-प्राणियों के प्रति मेरे मन में कृपाभाव उत्पन्न हो, मैं किसी के प्रति द्वेषभाव न रखू और न कोई मेरे प्रति द्वेषभाव रखे, मैं ऐसे लोगों के प्रति भी माध्यस्थ भाव बनाए रखू । 'तत्वार्थसूत्र' में सामायिक को एक व्रत कहा है (७-२१), उमास्वामी की दृष्टि में 'तीनों संख्याओं मे समस्त पापों या पाप के कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन-वचनकाय के एकाग्र करने को सामायिक कहते हैं । जितने समय तक गृहस्थ सामायिक करता है उतने समय के लिए वह महाव्रती के समान हो जाता है । उमास्वामी ने सामायिक को चारित्र्य भी माना है(९-१८) । समस्त पापकों का परित्याग करना सामायिक चारित्र है। 'छहढाला' में समताभाव रखने का, सामायिक करने का आदेश दिया गया है
रख उर समताभाव, सदा सामायिक करिए, परव चतुष्टय मांहि, पाप तज पोषध धरिए । भोग और उपभोग नियम करि ममत्व निवारे, मुनि को भोजन देय फेर, निज करिहि अहारै । (६-१४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org