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अध्यात्म के परिपावं में
सन्देह नहीं। यह बाह्य न होकर आन्तरिक क्रिया है। जैनाचार्यों ने आचारसम्बन्धी नियमों का विशद रूप में चित्रण किया है। जैन आचार दर्शन में छह आवश्यक कर्म माने गए हैं : (१) सामायिक, (२) स्तवन, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग, (६) प्रत्याख्यान । इन आचार-नियमों में सामायिक का स्थान प्रथम है। सामायिक में छह बातें महत्त्वपूर्ण होती हैं : (१) समताभाव, (२) राग-द्वेष का त्याग, (३) आत्मा की स्थिरता, (४) सावद्ययोग-निवृत्ति, (५) संयम, तप आदि की एकता, (६) नित्यकर्म व शास्त्र । कुन्दकुन्दाचार्य ने अपनी कृति नियमसार में कहा है:
झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।।
तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिक्कमणं ॥ ९३
अर्थात् ध्यान सब प्रकार के अतिचार का प्रतिक्रमण है, ध्यान द्वारा सब प्रकार के दोषों का परित्याग किया जाता है। ध्यान में संयम और इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक है, सामायिक में भी संयम और निग्रह का, त्याग और समत्व का भाव मूल आधार माना जाता है। ध्यान द्वारा चित्त, मन इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है, इसी प्रकार के ध्यान से आत्मा भी स्थिरीभूत होती है। 'ज्ञानार्णव' में संयमी योगी को प्रशस्य कहा गया
भवभ्रमणनिविण्णा भावशुद्धि समाश्रिताः । सन्ति केचिच्चभूपृष्ठे योगिनः पुण्यचेष्ठिताः ॥ ५॥३ विरज्य कामाभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् ।
यस्य चितं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥ ५६३
जो व्यक्ति संसार-परिभ्रमण के दु:ख से खिन्न होकर राग-द्वेष रहित होते हुए अपने अन्तःकरण को अतिशय निर्मल रखते हैं ऐसे भी कुछ योगी यहां विद्यमान हैं, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। और जिस ध्याता का चित्त इंद्रिय विषय-भोगों से रिक्त होकर शरीर के विषय में निर्ममत्व होता हुआ स्थिरता प्राप्त करता है, वह ध्याता प्रशस्य है।
समत्व की प्राप्ति ही सामायिक है-"समस्य आय: समायः तदेवसामायिकम्" आत्मा की स्वभाव दशा भी सामायिक है और समत्व में रहने वाला ही परम श्रमण कहा जाता है—'सममणो जो समणो।' 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'आय' धातु में 'इक्' प्रत्यय लगाने से सामायिक बना है, जिसका अर्थ हुआ आत्म स्वरूप में रमण करना । 'आय' से मतलब है अनर्थ का पूर्ण रूप से नष्ट होना; यही समाय है। जो साधक त्रस और स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, उसी की सामायिक सच्ची सामायिक
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