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सामायिक : अर्थ और स्वरूप
समभावो सामइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसओ ति । निरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं ॥४२५ वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥ ४२६ विरदो सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिविदियो ।
तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥ ४२७
'समणसुत्तं' की उपर्युक्त गाथाओं (मोक्षमार्ग, द्वितीय खंड) में कहा गया है कि तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है । राग-द्वेष-रूप ध्यान या अध्ययन-रूप उचित प्रवृत्ति प्रधान चित्त को सामायिक कहते हैं और जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परम समाधि या सामायिक होती है। जो सर्वसावध से विरत है, त्रिगुप्तियुक्त है तथा जितेन्द्रिय है, उसके सामायिक स्थायी होती है। यहां यह बात स्पष्ट है कि राग-द्वेषसे-रहित रहना या सुख-दुःख में, मित्र-शत्रु में, लाभ-हानि में समभाव रखना ही सामायिक है और इसमें त्याग या वीतरागत्व का भाव समाहित है; लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आदमी आचरण ही न करे, सामायिक तो आचार-प्रधान क्रिया है। क्रियावान् ही विद्वान् है-'यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।' ज्ञान और आचरण दोनों को जानना आवश्यक और लाभप्रद है । ४८ मिनिट की सामायिक करना समभाव-संपुष्ट साधना है और सामायिक की सार्थकता ही समताभाव में है, इसे हम स्वरूप की खोज भी कह सकते हैं । यहां मन और बुद्धि को एक या सम किया जाता है, इसी के द्वारा स्वरूप को खोजा या जाना जाता है । यह एक ऐसा विचक्षण स्वाध्याय है, जहां मनुष्य विभाव-से-स्वभाव की ओर ऊर्ध्वग होता है। सामायिक एक वैयक्तिक क्रिया है, साधना है, स्वाध्याय-ज्ञान है। भाव-स्वरूप हमारा साध्य है, जिसके लिए द्रव्य स्वरूप सामायिक साधन है । सामायिक मन को नियन्त्रित कर अशुभ कमों को क्षीण करना है
सामाइय वय जुत्तो, जाव मणो होइ नियम संजुत्तौ । छिन्नइ असुहं कम्म, सामाइय जूत्तिया वारा ॥ सामायिक ज्ञान को आचरण में रूपान्तरित करने की क्रिया है, इसमें
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