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________________ ९४ अध्यात्म के परिपार्श्व में या दुःखों से त्राण दिलाये उसे मन्त्र कहते हैं— मन्त्रः परमोज्ञेयो मननत्राणेह्यतोनियमात् । जब हम महान् आत्माओं के समक्ष नमन करते हैं, श्रद्धा-भक्ति से नतमस्तक होते हैं तो सभी प्रकार के विकारों का परिशमन हो जाता है, यहां तक कि अपने अन्दर हीनता का संशय भी नहीं रहता और हमारे अन्दर ऐसी आत्मशक्ति का विकास होने लगता है, जिसके द्वारा सभी प्रकार के कर्म - बंधन नष्ट हो जाते हैं । इस मन्त्र को 'परमेष्ठी मन्त्र' कहने से भी यह भावना व्यंजित होती है कि जो महान् आत्माएं परम-स्वरूप में स्थित हैं, जो आध्यात्मिक विकास के उच्च शिखर पर आरोहण कर चुके हैं, वे परमेष्ठी हैं, उन्हें ही नमस्कार किया है ताकि हम तद्रूप हो सकें । णमोकार मन्त्र मे अरिहन्त को प्रथम नमस्कार किया गया है, जबकि होना यह चाहिये था कि सत्य के प्रथम उपदेष्टा साधु को ही प्रथम नमस्कार किया जाना चाहिये था । वस्तुतः सत्य का प्रथम साक्षात्कार, केवलज्ञान का प्राप्तिकर्ता अरिहन्त है, जो कुछ भी सत्यासत्य का प्रकाश उसे प्राप्त है उसी को मुनि या साधु जनसाधारण के सामने व्याख्यायित करते हैं । साधु ने स्वयं सत्य या ज्ञान का साक्षात्कार नहीं किया । मूल अनुभूत सत्य की प्रतिमा अरिहन्त भगवान् है, वही आध्यात्मिकता का सर्वोच्च और पवित्रतम रूप है, उन्हीं के आध्यात्मिक प्रकाश से संसार का अज्ञानान्धकार नष्ट होता हैं । णमोकार मन्त्र में अरिहन्त और सिद्ध देवत्व को प्राप्त होते हैं, शेष तीन गुरु की श्रेणी में विराजमान हैं; ये आत्मविकास की अपूर्णावस्था में हैं और मंजिल के राही हैं, सत्य के अन्वेषी हैं । अन्त का अर्थ है शत्रु का हनन करने वाला। यहां काम-क्रोध, लोभ-मोह आन्तरिक जगत् के शत्रुओं को नष्ट करने वाला, अहिंसा - मैत्री, समता - शांति के लोक में विचरण करने वाला अरिहंत है । सिद्ध को कर्ममुक्त पूर्ण आत्मा माना जाता है । आचार्य आचार और संयम का अनुपालन करते हुए पांच महाव्रतों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करता है और संघ का नेतृत्व करते हुए दूसरों को सन्मार्ग दर्शाता है । उपाध्याय लोगों को विवेक - विज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है, वह आध्यात्मिक विद्या का दान देता है । साधु सिद्धि का अनुसंधान करने वाला एक ऐसा साधक होता है, जो विषय-वासनाओं का परित्याग कर, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर पांच महाव्रतों, समितियों, आचारों, गुप्तियों का पालन करता है । और आत्मा की साधना आत्मविकास के लिए मनुष्य को प्रथमतः साधु-मार्ग पर चलना पड़ता है और अन्ततोगत्वा उसे अपने चरम लक्ष्य अरिहंत को प्राप्त करना होता है, यही आत्मविकास का दर्शन है, यही आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा है, यही व्यक्तित्व का ऊर्ध्वगमन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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