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________________ 'णमोकार' : आत्मविकास का दर्शन आत्मा का विकास करना भक्त का, मनुष्य का आध्यात्मिक लक्ष्य है और उस लक्ष्य या आदर्श तक पहुंचने के लिए हमें पांच पदों को अपना अवलंबन बनाना चाहिये--(१) णमो अरिहंताणं (नमस्कार हो अरिहंतों को), (२) णमो सिद्धाणं (नमस्कार हो सिद्धों को), (३) णमो आयरियाणं (नमस्कार हो आचार्यों को) (४) णमो उवज्झायाणं (नमस्कार हो उपाध्यायों को), (५) णमो लोए सव्वसाहूणं (नमस्कार हो लोक में सब साधुओं को)और यही पंच नमस्कार सकल पापपुंज को नष्ट करने वाला है, सकल मंगलों में प्रथम मंगल है। नवकार मन्त्र में सबसे पहले "णमो" शब्द का उच्चारण किया जाता है; इससे यही अभिप्रेत है कि महान् पुरुषों या महान् आत्माओं को नमस्कार करना ही भक्ति है, पूजा है। नमस्कर्ता नमस्य के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति को, या पूज्य भाव को अभिव्यक्त करता है । पूज्य भाव की यह अभिव्यक्ति दो रूपों में सामने आती है—(१) द्रव्य-नमस्कार (२) भाव-नमस्कार । द्रव्य-नमस्कार में हम अपने हाथ-पैर या मस्तक को महान आत्मा की ओर झुकाते हैं, उसकी महिमा और लघुता या तुच्छता व्यक्त करते हैं, जबकि भाव-नमस्कार में मन का चांचल्य दूर कर पूर्णरूप से एकाग्र चित्त होकर उसे (मन को) महान् आत्मा पर स्थिर कर देते हैं। ___ आचार्य जयसेन ने 'द्वैत' और 'अद्वैत' इन दो रूपों में नमस्कार के भेद व्यक्त किये हैं । द्वैत में नमस्य और नमस्कर्ता में पृथक्ता का बोध रहता है और जब यह द्वैत भाव समाप्त हो जाता है, नमस्कर्ता अपने-आप में नमस्य के रूपगुण का भान करने लगता है तो अद्वैत नमस्कार कहलाता है। इस स्थिति में आराधक के मन की कलुषता, राग-द्वेष की भावना नष्ट हो जाती है और वह केवल अपने आराध्य को ही देख पाता है या उसके गुणों का ही उसे निरन्तर भान होता रहता है। यही स्थिति नर से नारायण बनने की है, यही स्थिति 'अनलहक' की है, यही स्थिति 'तत्त्वमसि' की है। विद्यापति की राधिका 'कृष्ण-कृष्ण' जपते-जपते "राधा-राधा' जपने लगती है; अर्थात् उसकी आत्मा का ऊर्वीकृत रूप कृष्णमय हो जाता है। जैनधर्म में जिसे 'अप्पा से परमप्पा' कहा गया है उसकी चरम स्थिति यही है, अर्थात् अपनी आत्मा अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है, वही शुद्ध परमात्मा-रूप है । इकबाल ने जब यह कहा खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है ? यदि 'मन्त्र' की व्युत्पति पर विचार करते हुए हम णमोकार' या 'नवकार' या 'परमेष्ठी मन्त्र' का पर्यवेक्षण करें तो इसमें आत्म-शक्ति के विकास का ज्ञान मालूम होगा। चिन्तन-मनन से जो दुःखों का विनाश करे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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