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अध्यात्म के परिपार्श्व में
तब मन वासनाओं के भंवर में नहीं फंसता, इधर-उधर नहीं भटकता । मन की निष्कपटता और सरलता ही आत्मा को शुद्ध और परिष्कृत करती है और जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, सुसंस्कृत होती है उसी के पास धर्म ठहरता है । णमोकार मन्त्र आत्मशुद्धि का मन्त्र है । यह कलुषित वृत्तियों का विनाश कर आत्म- गुणों को प्रादुर्भूत करता है, आत्म- परिज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है और शनैः-शनैः मोक्ष के, निर्वाण के द्वार उद्घाटित करता है । यह केवल ज्ञान की, अरिहंतत्व और सिद्धत्व की समुपलब्धि कराने वाला रामवाण है । यह महामन्त्र वह सुदीर्घ मंजिल है, जिसे तय करता हुआ मनुष्य पंचपरमेष्ठी पद को प्राप्त कर लेता है । सवाल यह उत्पन्न होता है कि परमेष्ठियों को नमस्कार क्यों किया जाता है ? परमेष्ठियों को नमन करना अपनी लघुता और उसकी महत्ता प्रकट करना है । महिमा - गरिमा, प्रभुता - महानता को स्वीकार कर अपने को उनके समक्ष अपदार्थ समझना ही नमस्कार है । नमस्कार किया जाता है गुणवानों को ताकि हम भी गुण प्राप्त कर सक, उन जैसे बन सकें । और आराधक जैसा आराध्य रखेगा वह वैसे ही गुणों को प्राप्त होगा । ध्याता जिस प्रकार के ध्येय का गुणगान करेगा वह वैसा ही बन जाएगा। जिसकी जैसी भावना होती है प्रभु उसे उसी रूप में दर्शन देते हैं । 'मानस' में तुलसीदास ने यही कहा है
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" जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । "
वस्तुतः श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार किया जाता है, कहा
मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये ॥
अर्थात् जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, जो कर्म-रूपी पर्वतों को भेदने वाले हैं, जो विश्व के समस्त तत्त्वों को जानते हैं उनको मैं उन गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूं । संसार में नमस्कार को अपार गौरव प्राप्त है । अनेक धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों में नमस्कार का नैतिक और आध्यात्मिक आदर्श अनादि काल से प्रचलित है । यह वह गुण है, जिसके द्वारा हम नमस्कार करने वाले के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अवलोकन कर सकते हैं; हृदय की सरलता, निष्कपटता, मृदुता - कोमलता, सरसता, भावुकता, यहां तक कि उसकी गुण-ग्राह्यता की क्षमता का सहज अनुमान लग जाता है । जब कोई व्यक्ति अपने से महान् गुणवान, ज्ञानवान, शीलवान्, महात्मा को नमन करता है तब उस व्यक्ति के हृदय का समस्त मालिन्य, विकार, द्वेष, मान, अभिमान नष्ट हो जाते हैं, उसकी अहंता टुकड़े-टुकड़े होकर महात्मा के चरणों पर आ पड़ती है ।
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