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णमोकार' : आत्मविकास का दर्शन
भगवान महावीर के उपदेश लोकमंगल की भावना से उद्दीप्त हैं। उन्होंने लोकतंत्र की घोषणा ही नहीं की, वरन् प्राणितन्त्र का दिशादर्शन भी कराया। इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा—'अप्प दीपो भव' अर्थात् तू अपना दीपक स्वयं बन । यही उनका आत्मोदय दर्शन है, यही आत्मा के ऊर्ध्वगमन का सिद्धान्त है और इसे हम णमोकार महामन्त्र द्वारा आसानी से अर्जित कर सकते हैं । मांगलिक वचनों से आत्मा का कालुष्य नष्ट होता है, विषयकषायजनित अशांति दूर होती है और विकारों पर चिरविजय प्राप्त की जाती है। जीवन में आनन्द की हिलोरें उठने लगती हैं। एक विकारविहीन आदर्श का स्वरूप सामने होता है, राग-द्वेषजन्य विकारों का परिशमन हो जाता है और मनुष्य की आत्मा आध्यात्मिक विकास के सोपान पार करने लगती है।
जर्मन विद्वान् हेनरिचज़िमर ने तीर्थंकरों को 'संगम-निर्माता' का अभिधान दिया। उन्होंने इस अभिधान से लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के संबन्धों को संतुलित किया। यहां जीवन का उन्नयन है, व्यक्तित्व का उन्नयन है, उससे पलायन नहीं है । ‘पद्मपुराण' (९७/३८) में कहा गया है कि उस चरित्र का कोई लाभ नहीं, जिससे आत्मा का हित-साधन न हो। उस ज्ञान का कोई लाभ नहीं, जिससे आत्मा का ज्ञान न हो; अर्थात् सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा आत्मा का हितसाधन और उसका परिज्ञान प्राप्त करना फलदायक है, यहां विनय और भक्ति-निष्ठा को आत्मा का, धर्म का आधार माना जा सकता है। विनय, निष्ठा, और श्रद्धा के साथ महान आत्माओं की चरण-रज सिर पर धारण करने से, उनके आदर्शों की उपलब्धि से न केवल चित्त को स्थैर्य और मन को शान्ति प्राप्त होती है। बल्कि आत्मा का सम्यक् विकास होता है, उसमें पंचपरमेष्ठी के गुण समाविष्ट हो जाते हैं। इन्हीं महान् आत्माओं की, पंचपरमेष्ठी की शरण में जाने के लिए, उनके आदर्शों का स्मरण करने के लिए महामन्त्र णमोकार की महिमा वर्णनातीत है।
जैनधर्म में मन्त्राराधना का अपना विशिष्ट महत्त्व है। यों तो मनुष्य अपनी उन्नति-अवनति का, अपने उत्थान-पतन का कारण स्वयं ही है, परन्तु णमोकार मन्त्र की आराधना इसलिए की जाती है, इसका जप इसलिए किया जाता है कि हम उपास्य के गुणों को हृदयंगम करते हुए तद्रूप, तदनुकूल होने का प्रयास करें। और जब एकाग्रचित से हम इस महामन्त्र का जप करते हैं,
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