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अध्यात्म के परिपार्श्व में
जैनधर्म के उस रूप का प्रातबिम्ब दिखाई पड़ता है, जिसमें नारी-धर्म के क्षेत्र में मुनि और आचार्य-पद की अधिकारिणी बनी थी, वह संघ-संचालक थी। जैनधर्म में नारी को जो समानता और स्वतंत्रता प्रदान की गई है, आज का नारी-वर्ग उसी की सबल मांग कर रहा है। यह माना कि जैनधर्म हजारों वर्ष पुराना है, परन्तु उसमें जिन सिद्धांतों तथा जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना है, वे अपनी आभा धूमिल नहीं कर सकते । युग बदलते हैं, परिस्थितियां बदलती हैं उसी के साथ जैनधर्म का स्वरूप और अधिक शुभ्र, व्यापक और उपादेय होता जाता है । आज भी जैनधर्म की प्रासंगिकता युग की पुकार है, उस पर प्रश्नचिह्न लगाना अपनी अल्पज्ञता प्रकट करना है।
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