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ही है कि परमाणु अस्त्रों के नए निर्माण की चेतना को कुंठित कर सम्बन्धित व्यक्तियों को सोच की नई खिड़की से झांकने के लिए विवश कर दिया गया
परमाणु आयुध परिसीमन का विश्व के प्रायः सभी राष्ट्रों ने स्वागत किया। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि मनुष्य की आस्था हिंसा में नहीं है, अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में नहीं है और उनके प्रयोग में भी नहीं है। अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने का मतलब है आपसी सन्देह को बढ़ाना। अमुक राष्ट्र संहारक परमाणु आयुधों का निर्माण कर रहा है। वह शक्ति सम्पन्न होकर मेरे अस्तित्व को समाप्त न कर दे इस आशंका से प्रेरित होकर दूसरा राष्ट्र नए आयुधों के निर्माण में सक्रिय हो जाता है। उसकी सक्रियता उसके प्रतिद्वन्द्वी में भय की भावना जगाती है। इस प्रकार सन्देह-से-संन्देह की परम्परा बढ़ती जाती है।
वैर से वैर शान्त नहीं होता। सन्देह से सन्देह दूर नहीं होता। वैर का शमन मित्रता का हाथ बढ़ाने से ही संभव है। सन्देह का कुहासा आपसी विश्वास का सूरज उगाने से ही छंट सकता है। इस भावना के आधार पर ही शस्त्रनिर्माण और उसके प्रयोग को नियन्त्रित किया जा सकता है। विश्व में शस्त्रास्त्रों के निर्माण एवं सेना पर जितने अर्थ का व्यय होता है, उसमें कुछ प्रतिशत भी कटौती होती है तो संसार राहत का अनुभव कर सकता है। अपने कार्यकाल की समाप्ति के साथ विदा होते-होते राष्ट्रपति बुश ने जो श्रेय लिया है, वह सभी राष्ट्राध्यक्षों के लिए अनुकरणीय है। .. __ अणुव्रत आचार-संहिता की एक धारा है- 'मैं आक्रमण नहीं करूंगा और आक्रामक नीति का समर्थन नहीं करूंगा।' अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण की मानसिकता को बदलने में इस धारा की सक्रिय भूमिका है। काश! इस युग का आदमी अणुव्रत दर्शन को गहराई से समझे और उसे जीने के लिए दृढ़ संकल्प कर सके तो सारा संसार माँ अहिंसा की गोद में सुख से सो सकता
८० : दीये से दीया जले
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