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कुछ समय बीता। वहां एक दूसरा व्यक्ति आया । वह भी संन्यासी से मिला। गांव की स्थिति के बारे में जानकारी पाने के लिए उसने प्रश्न किया-'बाबा! इस गांव का नाम बहुत है । आप तो यहीं रहते हैं । कृपा कर बताएं गांव कैसा है ? संन्यासी ने प्रतिप्रश्न किया- 'भाई ! तुम जिस गांव से यहां आए हो, वह कैसा है ? राहगीर ने कहा - 'बाबा ! उस गांव की बात मत पूछो। वहां न कोई सुविधा है और न कोई व्यवस्था । गांव के लोग भी अच्छे नहीं हैं । इसीलिए तो मैं उसे छोड़कर यहां रहने आया हूं।' संन्यासी ने उस व्यक्ति को ध्यान से देखकर कहा - ' भाई ! यह गांव तो और भी गया- बीता है। तुम लौट जाओ। यहां तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं होगी ।'
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संन्यासी के साथ उसका शिष्य रहता था । वह अपने गुरु की बात सुन देखता रह गया। गुरु ने पूछा- 'वत्स! क्या हुआ ? ऐसे क्या देख रहे हो ? शिष्य बोला- 'गुरुदेव ! कुछ समय पहले एक आदमी आया था । उसको आपने कहा था कि गांव बहुत अच्छा है। तुम यहां प्रसन्नता से रहो । और इस आदमी से आपने पूर्व कथन से एकदम विपरीत बात कही । मैं समझ नहीं पाया कि आपने ऐसा क्यों कहा? संन्यासी ने अपने शिष्य की उलझन समाप्त करते हुए कहा - 'वत्स ! जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । उस आदमी का दृष्टिकोण विधायक था। वह कहीं भी जाएगा, उसे सब अच्छा ही लगेगा यह व्यक्ति निषेधात्मक भावों में जीता है । यह स्वर्ग में चला जाएगा तो भी इसे बुराई ही नजर आएगी ।'
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मनुष्य के भावों में विधायकता और निषेधात्मकता दोनों हैं । यदि वह निषेधात्मक भावों से भरा रहेगा तो कभी सुख और शान्ति को उपलब्ध नहीं कर सकेगा। यदि उसका चिन्तन पोजिटिव हो जाए तो वह हर समय आनन्द की अनुभूति कर सकता है। इस संसार - पटल पर जो कुछ अवांछनीय है, उसे अनदेखा करने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होगा । समस्या को सही
जरिए से देखकर समाधान की सही दिशा खोजने से पहले व्यक्ति को यह विश्वास तो हो कि वह एक अच्छे संसार में जी रहा है । अन्यथा जीने की इच्छा को ही जंग लगने की संभावना की जा सकती है ।
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