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वैसा नहीं हो पाया । कारणों की मीमांसा की जाए तो एक लम्बी कारण-श्रृंखला उपस्थित की जा सकती है। पर उसमें कोई लाभ नहीं दीखता। जो नहीं हुआ, उसको लेकर बैठ जाएं तो कार्य की नई संभावनाओं के रास्ते बन्द हो जाते हैं। वर्ष में एक बार ही सही उद्बोधन सप्ताह के नाम से अणुव्रत पर चर्चा तो हुई। साधु-साध्वियों को एक सार्वजनिक कार्यक्रम करने का अवसर तो मिला। यह भी क्या कम संतोष का विषय है कि अणुव्रत ने काम करने का एक व्यापक मंच तो दिया। . 'अणुव्रत चेतना दिवस' प्रति माह अणुव्रत के स्वर को मुखर करने में निमित्त बन रहा है। यह दिन मनाने का उद्देश्य इतना ही नहीं है कि अणव्रत के विषय में व्याख्यान हो जाए, अच्छे वक्ताओं को बोलने का अवसर दे दिया जाए और कुछ लोगों से अणुव्रत के फार्म भरवा कर उन्हें अणुव्रती बना लिया जाए। अणुव्रत के प्रतिज्ञापत्र भरना बहुत स्थूल बात है। मूल बात है अणुव्रत का दर्शन । दर्शन की गहराई में उतरकर उसे समझना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है। अणुव्रत दर्शन को समझे बिना अणुव्रती बनना बिना बुनियाद मकान खड़ा करने के समान है। अणुव्रत क्या करना चाहता है? क्या कहना चाहता है और क्या देना चाहता है? इन सब प्रश्नों को चरित्र-निर्माण के सन्दर्भ में समझना और समझाना है।
प्रश्न हो सकता है कि 'अणुव्रत चेतना दिवस' महीने में एक दिन का कार्यक्रम है। एक दिन से क्या होगा? मैं इस भाषा में नहीं सोचता। लहर बदलने के लिए हवा का एक झोंका ही काफी होता है। सैकड़ों स्थानों में एक दिन यह घोष- बदले युग की धारा : अणुव्रतों के द्वारा-मुखरित होगा, दिग्दिगन्त इसके निनाद से गूंज उठेंगे और मनुष्य के विचारों की लहर बदलेगी, यह मेरा निश्चित विश्वास है।
७० : दीये से दीया जले
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