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२८. भाईचारे की मिशाल
६ दिसंबर १६६२ को अयोध्या में विवादास्पद ढांचे को कुछ लोगों ने ध्वस्त कर दिया। इस घटना ने मन्दिर-मस्जिद मसले को लेकर लगी वैचारिक आग में आहुति का काम किया। आग फैले नहीं, यह लक्ष्य सबके सामने था। लोगों ने संयम से काम लिया। मानसिक विद्रोह के बावजूद स्थिति नियंत्रण में रही। सरकार के सामने बहुत जटिल स्थिति थी। राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद १४३(१) के तहत मामला उच्चतम न्यायालय को भेजा था। मामला बेहद संवेदनशील था। उस पर कोई कदम उठाने से पहले सरकार ने न्यायालय से राय लेना उचित समझा। न्यायालय में मामला पहुंचने के बाद विवाद से सम्बन्धित दोनों पक्ष और सरकार उक्त सन्दर्भ में किसी निर्णय पर पहुंचने की स्थिति में नहीं थी। बेसब्री से न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा की जा रही थी। आखिर २५ अक्टूबर १६६४ को मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम. एन. बैंकटचलैया ने न्यायालय का फैसला सुना दिया। उससे सरकार की परेशानी कम नहीं हुई। क्योंकि उच्चतम न्यायालय से जिस विषय में राय मांगी गई थी, उसने राय देने से ही इन्कार कर दिया। बात घूम-फिरकर पुनः सरकार पर आ गई। ____सरकार प्रस्तुत विवाद के सन्दर्भ में क्या करेगी, यह हमारी रुचि का विषय नहीं है। यह विषय पूर देश के लिए सिरदर्द बना हुआ है। यह सिरदर्द कैसे दूर हो, हमारी रुचि इस बात में है। इतने बड़े राष्ट्र में इतनी छोटी-छोटी बातें इस प्रकार सिरदर्द बन जाएं, यह शोभनीय स्थिति नहीं है। हमारा चिन्तन यह है कि ऐसी समस्या न कानून से सुलझ सकती है, न कोर्ट से सुलझ सकती है और न सरकार से सुलझ सकती है। इसके लिए आवश्यक है
६० : दीये से दीया जले
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