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अनेकान्त दृष्टि का उपयोग।
कोई भी विषय विवादास्पद बनता है तो उसमें पक्ष और प्रतिपक्ष खड़े हो जाते हैं। बिजली पैदा करने के लिए पोजिटिव और नेगेटिव-दोनों प्रकार के तार आवश्यक होते हैं। विवाद को खड़ा रखने के लिए भी पक्ष और प्रतिपक्ष की जरूरत रहती है। किसी भी विवाद को हिंसात्मक मोड़ देना बुद्धिमानी की बात नहीं है। मनुष्य का विवेक और बुद्धिमत्ता इसमें है कि ऐसे प्रसंगों पर सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न हो। भगवान महावीर ने इस प्रकार की समस्याओं को समाहित करने में अनेकान्त का उपयोग किया था। इसमें जय-पराजय की भावना नहीं रहती। किसी को ऊंचा या नीचा दिखाने का लक्ष्य नहीं रहता। किसी को सम्मानित या अपमानित करने की स्थिति नहीं आती। दृष्टिकोण स्पष्ट हो, दिशा सही हो और समस्या का समाधान करने की तड़प ही तो अनेकान्त से बढ़कर कोई मार्ग हो ही नहीं सकता।
हिन्दू और मुस्लिम दो कौम हैं। इनको आमने-सामने खड़े होने की अपेक्षा ही क्यों हो? देश में और भी तो अनेक कौमें हैं। प्रत्येक कौम को रहने का अधिकार है। सब कौमों के लोगों में सामंजस्य और सहअस्तित्व की भावना हो तो कौमी झगड़ों को जमीन ही नहीं मिलेगी। सामंजस्य तभी हो सकता है जब एक-दूसरे की भावना का आदर हो, एक-दूसरे की परम्पराओं का आदर हो और उपासना के केन्द्रों को संघर्ष के केन्द्र न बनाया जाए। हिन्दू और मुस्लिम एक ही धरती पर जनमे और पले-पुसे हैं। वे भाई-भाई की तरह रहते आए हैं।
हैदराबाद से २७५ किलोमीटर दूर गुलबर्गा जिले के टिनटिनी गांव में उन्होंने भाईचारे की अद्भुत मिशाल कायम की है। वहां वे एक ही सन्त को एक ही पूजास्थल पर पूजते आए हैं। हिन्दू लोग उस सन्त की पहचान मोनेश्वर बाबा के नाम से करते हैं और मुसलमान उसे मोनापैय्या कहकर पुकारते हैं। कहा जाता है कि सन्त मूलतः हिन्दू थे। बाद में वे सूफी मत की ओर आकृष्ट हो गए। इस कारण दोनों कौमों के लोग उनके प्रति पूज्यभाव रखने लगे। क्या अयोध्या में एक ही प्रतीक को हिन्दू और मुसलमान दोनों मान्यता नहीं दे सकते?
हिन्दू लोग महावीर को मानते हैं। हमारे मुस्लिम भाइयों में भी अनेक
भाईचारे की मिशाल : ६१
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