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नहीं जलता। सीधा बीच में हाथ डालना बुद्धिमत्ता है क्या?
विश्व धर्म की कल्पना भी गलत नहीं है, पर उसके स्वरूप को ठीक तरह से समझना होगा। धर्म के दो रूप हैं-उपासना और आचरण । उपासना धर्म कभी विश्वधर्म नहीं बन सकता। आस्था और रुचि के भेद से उपासना के अनेक भेद हो सकते हैं। आचरण की बात पर सबकी सहमति संभव हो सकती है। जीवन-निर्माण या चरित्र-निर्माण की कुछ ऐसी बातें हैं जो पूरे विश्व पर एक रूप में लागू हो सकती हैं। उनका संकलन कर उन्हें निर्विशेषण धर्म के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो विश्वधर्म का स्वरूप उजागर हो सकता है। उस धर्म को कोई विशेषण देना ही हो तो मानवधर्म-यह विशेषण दिया जा सकता है। मैत्री एक आचरण है, संयम एक आचरण है अहिंसा एक आचरण है। इनमें रुचि, आस्था, संस्कार या विचार का क्या भेद हो सकता है? इन तत्त्वों का संबंध सब लोगों से है। कोई व्यक्ति धर्म को माने या नहीं, मैत्री आदि को अमान्य नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में विश्वधर्म की कल्पना सहज ही साकार हो सकती है।
व्यक्ति और विश्व में अन्तर क्या है? व्यक्ति धागा है और विश्व वस्त्र है। व्यक्ति मनका है और विश्व माला है। दोनों का योग होता है। फिर भी वस्त्र-निर्माण से पहले धागे के अस्तित्व और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। विश्वधर्म की प्रकल्पना में भी मूलतः व्यक्ति को पकड़ना जरूरी है। व्यक्ति-व्यक्ति धार्मिक या आध्यात्मिक बनेगा तो अधर्म को टिकने के लिए जमीन नहीं मिलेगी। मेरे अभिमत से अणुव्रत के सिद्धान्त ऐसे हैं, जो विश्वधर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। अपनी लम्बी पदयात्राओं और व्यापक जनसंपर्क में मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जिसने सिद्धान्ततः अणुव्रत को अस्वीकार किया हो। इसलिए आज अपेक्षा इस बात की है कि व्यक्तिव्यक्ति को चरित्रनिष्ठ या धार्मिक बनाकर विश्वधर्म की पृष्ठभूमि को मजबूत बनाया जाए।
५४ : दीये से दीया जले
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