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२५. व्यक्ति और विश्व
आजकल कुछ व्यक्ति विश्वव्यवस्था, विश्वधर्म, विश्वहित, विश्वविकास और वैश्विक चिंतन की बात करते हैं। कुछ व्यक्ति पूरी तरह से आत्मकेन्द्रित होते हैं। वे विश्व के बारे में क्या अपने देश, समाज, गांव, पड़ोस या परिवार की दृष्टि से भी कुछ सोचने या करने के लिए तैयार नहीं हैं। मेरा चिंतन यह है कि मनुष्य की दृष्टि अनेकान्त-प्रधान होनी चाहिए। विश्व और व्यक्ति के बारे में विचार किया जाये तो इन दोनों को सापेक्ष मान कर ही सोचना जरूरी है। व्यक्ति को भुलाकर विश्व को नहीं बनाया जा सकता और विश्व के बिना व्यक्ति की अस्मिता को प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। मकान के निर्माण में ईंटों का उपयोग होता है, पर केवल ईंटें क्या करेंगी? ईंटों के साथ अन्य सामग्री की भी अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार व्यष्टि और समष्टि दोनों के समुचित विकास से ही सर्वांगीण विकास संभव है। ...
व्यक्ति विश्व में सन्निहित है। वह अकेला रह नहीं सकता, अकेला जी नहीं सकता। ऐसी स्थिति में चिंतन की यात्रा व्यक्ति से शुरू होकर विश्व तक पहुंचे, यह सही क्रम है। भोजन से थाली भरी है। पूरी थाली एक साथ नहीं खाई जा सकती। व्यक्ति किनारे से चले तो पेट पूरा भर सकता है। चाणक्य एक बुढ़िया के घर पहुंचा। भूख लगी थी। बुढ़िया ने थाली भर कर खिचड़ी परोसी। चाणक्य ने बीच में हाथ डाला। हाथ जल गया। बुढिया ने चाणक्य को पहचाना नहीं था। उसने उसको साधारण राहगीर समझकर कहा-'तुम चाणक्य की तरह मूर्ख हो।' चाणक्य चौंका। उसने पूछा-'मां ! चाणक्य ने क्या मूर्खता की? बुढ़िया बोली-'उसने आसपास के छोटे राज्यों को जीते बिना सीधा पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया, इसीलिए उसे पराजित होना पड़ा। तुम भी किनारे से थोड़ी-थोड़ी खिचड़ी खाते तो तुम्हारा हाथ
व्यक्ति और विश्व : ५३
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