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जो स्तर को उठाने की अपेक्षा नीचा करन वाला प्रमाणित हा रहा है । हिन्दा का शुद्ध लेखन और उच्चारण स्नातक और स्नातकोत्तर विद्यार्थियों के लिए भी कठिन हो रहा है । साहित्यिक स्तर की हिन्दी को समझने में तो उन्हें एड़ी से चोटी तक पसीना आ जाता है । एक राष्ट्रभाषा अपने ही राष्ट्र में इतनी उपेक्षित हो जाए तो उसकी ओर ध्यान कौन देगा?
यह सच है कि किसी भी देश के वातावरण को बदलने में शिक्षा की भूमिका अहम होती है । देश के लाखों-करोड़ों विद्यार्थी जैसे संस्कार पाएंगे उन्हीं के आधार पर देश बनेगा। इस दृष्टि से शिक्षा पद्धति को ठोस बनाना जरूरी है । बहुत लोगों का यह अभिमत है कि हमारी शिक्षा पद्धति गलत है । मेरा चिन्तन इससे भिन्न है । मेरी दृष्टि में शिक्षा पद्धति गलत नहीं, अधूरी है। इससे बौद्धिक विकास हो रहा है, शारीरिक विकास पर भी थोड़ा ध्यान दिया जा रहा है, किन्तु मानसिक और भावनात्मक विकास शून्य की तरह है । आश्चर्य तो इस बात का है कि शिक्षा नीति में बदलाव के लिए कितने आयोग बने, कितनी रिपोर्टें आईं, पर हुआ कुछ नहीं । इस स्थिति में निराशा का वातावरण बन रहा है ।
नैतिक शिक्षा, धार्मिक शिक्षा आदि शब्द आज इतने घिसे-पिटे हो गए हैं कि इनके प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा है। नैतिक शिक्षा पर एक आपत्ति यह भी आ रही है कि जो शिक्षा दी जा रही है, क्या वह अनैतिक है ? धार्मिक शिक्षा पर टिप्पणी यह है कि धर्म-निरपेक्ष देश में किसी धर्म-सम्प्रदाय विशेष की शिक्षा कैसे दी जा सकती है ? ऐसी स्थिति में शिक्षा को सर्वांगीण बनाने के लिए गहराई से चिन्तन किया गया । उस चिन्तन की निष्पत्ति है जीवन विज्ञान | प्राथमिक कक्षाओं से लेकर स्नातकोत्तर स्तर तक जीवन विज्ञान का पाठ्यक्रम तैयार हो चुका है । इसमें सिद्धान्त पक्ष के साथ प्रायोगिक पक्ष पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है । लक्ष्य यह रहा है कि विद्यार्थी के समग्र व्यक्तित्व का निर्माण हो । वह केवल बौद्धिक विकास पर रुके नहीं । उसमें आवेगों और संवेगों पर नियन्त्रण पाने की क्षमता भी बढ़े। साइन्स और टेक्नोलॉजी के साथ-साथ उसे सहिष्णुता, सन्तुलन, धृति, करुणा, संयम आदि जीवन मूल्यों का बोध - पाठ दिया जाए। शिक्षा के क्षेत्र में जीवन विज्ञान का प्रवेश शिक्षा संबंधी अनेक समस्याओं को स्थायी समाधान दे सकेगा, ऐसा विश्वास है ।
४२ : दीये से दीया जले
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