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१६. राष्ट्रीय चरित्र और शिक्षा
राष्ट्राय चरित्र को धूमिल या धवलिम करने में सबसे बड़ा हाथ होता है शिक्षा का। एक समय था, जब देश परतन्त्र था। उस स्थिति में इस पर एक प्रकार की शिक्षा थोपी गई। उसका चरित्र भारतीय संस्कृति और लोक जीवन के अनुकूल नहीं या। इस बात को समझने पर भी उस शिक्षा का अस्वीकार संभव नहीं था। क्योंकि पराधीन व्यक्ति और राष्ट्र को वह सब स्वीकार करना पड़ता है, जो सत्ता के सिंहासन से कराया जाता है।
सामान्यतः शिक्षा का सम्बन्ध जीविका के साथ जोड़ा जाता है, जब कि वह जीवन के लिए अनिवार्य तत्त्व है। जहां जीविका को ही प्रधानता मिलती है, वहां साइन्स और टेकनोलॉजी की शिक्षा का महत्त्व बढ़ता है और नैतिकता एवं चरित्र के तत्त्व गौण हो जाते हैं। उस बिन्दु पर जाकर शिक्षा कितनी दयनीय बन जाती है, जहां वह जीविका भी नहीं जुटा पाती। न जीवन और न जीविका। ऐसी शिक्षा राष्ट्र के लिए अभिशाप बन जाती है। जीवन मूल्यों से अपरिचित करोड़ों-करोड़ों ऐसे विद्यार्थी हैं, जो बेरोजगारी की राह पर खड़े जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए तरस रहे हैं। ऐसे समय में शिक्षानीति या शिक्षापद्धति की सार्थकता पर कुछ प्रश्न-चिह्न खड़े हो जाते हैं, जो समाज की अपेक्षा और बुनावट पर ध्यान दिए बिना ही विद्यार्थी पर पुस्तकें और डिग्रियों का भार लाद रही है।
विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की लंबी कतारें देश के शैक्षणिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए कटिबद्ध हैं। स्तर की परिभाषाएं अलग-अलग हैं। एक दृष्टि से आज का विद्यार्थी अतीत की अपेक्षा बहुत अधिक विषय पढ़ता है। वह देश-विदेश की हर गतिविधि से परिचित रहता है। कई क्षेत्रों में उसने अपनी दक्षता बढ़ाई है। किन्तु कुछ ऐसी बातें भी हैं,
राष्ट्रीय चरित्र और शिक्षा : ४१
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