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आदि निषेधात्मक भाव हैं। जब तक व्यक्ति पर इन भावों की छाया रहेगी, वह स्वास्थ्य लाभ नहीं कर पायेगा ।
स्वस्थ जीवन की आधारभूत भूमिका है स्वस्थ जीवनशैली । न जागने का समय निश्चित है और न सोने का । शयन और जागरण की अनिश्चितता से पूरा कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो जाता है । इस दृष्टि से जीवनशैली पर ध्यान देना नितान्त आवश्यक है । यह एक ऐसा विषय है, जिसमें खानपान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, उत्सव, पर्व, त्योहार, पारस्परिक संबंध, व्यवसाय, धार्मिक आस्था आदि बहुत तत्वों का समावेश हो जाता है । साहित्य और संस्कृति का भी इसी के साथ संबंध है । इन बिन्दुओं पर विचार करते समय अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान स्मृति से ओझल नहीं होने चाहिए।
मनुष्य कैसा होना चाहिए? इसका सुन्दर मॉडल है अणुव्रत की आचार-संहिता । मनुष्य अपने आपको उस मॉडल में कैसे ढाले ? इस प्रश्न का उत्तर है प्रेक्षाध्यान । अणुव्रत एक दर्शन है और प्रेक्षाध्यान एक प्रयोग है 1 अकेला दर्शन अधूरा होता है तो अकेला प्रयोग भी अधूरा होता है । इन दोनों को एक दूसरे का पूरक मानकर स्वस्थ जीवनशैली की कल्पना की जा सकती है । स्वस्थ जीवनशैली की प्राथमिक प्रक्रिया को शिक्षा के साथ जोड़ने का नाम है जीवन विज्ञान | विज्ञान में अध्यात्म और अध्यात्म में विज्ञान की सोच को निहित कर मनुष्य के संपूर्ण स्वास्थ्य अथवा स्वस्थ जीवन शैली के बारे में जागरूकता बढ़ने से ही भावात्मक स्वास्थ्य की उपलब्धि हो सकती है ।
४० : दीये से दीया जले
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