________________
१६. धर्म और सम्प्रदाय
मनुष्य की आस्था के अनेक केन्द्र होते हैं । उनमें एक शक्तिशाली केन्द्र है धर्म । सिख, ईसाई, इस्लाम, जैन, बौद्ध, बहाई, यहूदी, ताओ आदि बहुत धर्म हैं इस संसार में। एक - एक धर्म के अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है । उनकी अवधारणा में वह धर्म सर्वश्रेष्ठ है, जिससे वे जुड़े हुए हैं । अणुव्रत कहता है कि ये सब धर्म नहीं, सम्प्रदाय हैं । धर्म एक अविभक्त सत्य है । वह खण्डों में विभाजित नहीं होता । उसके साथ विशेषण जोड़ने की अपेक्षा ही क्या है ? निर्विशेषण धर्म ही जनधर्म या लोकधर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो सकता है। यदि धर्म के साथ कोई विशेषण जोड़ना ही हो तो वह हो सकता है मानव धर्म, अहिंसा धर्म, सत्य धर्म या आचार धर्म । क्या कोई भी सम्प्रदाय धर्म के इस स्वरूप को अस्वीकार कर सकता है ?
I
कुछ लोग पूछते हैं - 'क्या सम्प्रदाय के बिना भी धर्म हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर है अणुव्रत । अणुव्रत का सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय विशेष के साथ नहीं है । एक जैन अणुव्रती बन सकता है तो एक मुसलमान भी अणुव्रती बन सकता है । अणुव्रत की स्वीकृति में जाति का भी कोई बन्धन नहीं है। हरिजन, महाजन या गिरिजन कोई भी हो, नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था है तो अणुव्रती हो सकता है। भौगोलिक सीमाएं भी अणुव्रत को संकीर्ण नहीं बनाती हैं । भारतीय व्यक्ति को अणुव्रती बनने का जितना अधिकार है, उतना ही किसी जापानी, फ्रांसीसी, अमेरिकन, ब्रिटिश आदि
है। इसमें काले और गोरे का भी कोई भेदभाव नहीं है। लिंगगत प्रतिबद्धता को भी यहां कोई स्थान नहीं है । पुरुष की तरह महिला को भी सम्मान और गौरव के साथ अणुव्रती बनाया जा सकता है । (अणुव्रत एक ऐसा
३४ : दीये से दीया जले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org