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जीवन के लिए उपयोगी और आवश्यक माना गया है। पर वंही सब कुछ है, यह चिंतन भी एकांगी है। आज का आदमी उसे ही सब कुछ मान रहा है। अयं अढे अयं परमढे सेसे अणटे-यही अर्थ है, यही परमार्थ है, शेष अनर्थ है। भगवान् महावीर के भक्तों ने यह बात निर्ग्रन्थ प्रवचन के सन्दर्भ में कही। किन्तु लोगों की दृष्टि इतनी अन्तर्मुखी नहीं है। उन्होंने उस कथन को अर्थ के साथ जोड़ दिया, ऐसा प्रतीत होता है। अर्थ को ही अर्थ और परमार्थ मानना अशान्ति को खुला आमन्त्रण देना है।
लोग कहते हैं कि वे जिस युग में जी रहे हैं, वह युग कलियुग है। कलियुग में अशान्ति नहीं होगी तो और क्या होगा? कलियुग है, यह बात सही है। प्रश्न होता है-कलि कौन है? इसका उत्तर तैत्तिरीय उपनिषद देता
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति, कृतं संपद्यते चरन्॥ जो सोता है, वह कलि होता है। जो निद्रा का त्याग करता है, वह द्वापर होता है। जो खड़ा होता है, वह त्रेता कहलाता है और जो चलता है, वह सत्य को प्राप्त करता है।
उपनिषद की भाषा प्रतीकात्मक है। युग का क्या सोना और क्या जागना। युग कभी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। वह आता है तो लोग सोचते हैं कि यह कुछ समय रुकेगा। किन्तु वह नदी के प्रवाह की तरह आगे बढ़ जाता है। लोग सजग होते हैं तब तक वह उनकी पकड़ से बाहर चला जाता है। चार युगों की व्याख्या उनमें जीने वाले मनुष्य के सन्दर्भ में की गई है। जिस युग के लोग गहरी सुषुप्ति में रहते हैं, वह कलियुग है। जिस युग के लोग नींद से अपना पल्ला छुड़ाकर अंगड़ाई लेते हैं, जाग जाते हैं, वह द्वापर युग है। त्रेता युग का आदमी उठने का प्रयास करता है। उसका यह प्रयास ही उसे सतयुग में ले जाता है। सतयुग के लोग न सोते हैं और न हाथ पर हाथ देकर बैठते हैं। निरन्तर गतिशील रहते हैं। 'चरन् वै मधु विन्दते'-जो चलता है, वही लक्ष्यसिद्धि के रूप में मधु को प्राप्त करता है। इसलिए 'चरैवेति चरैवेति'-चलते चलो, सत्पुरुषार्थ करो। कलियुग भी तुम्हारे लिए सतयुग बन जाएगा।
३२ : दीये से दीया जले
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