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११. पानी में मीन पियासी
अणुव्रत का एक घोष है-संयम ही जीवन है। में बहुत बार सोचता हूं कि यह घोष थ्योरीटिकल है या प्रैक्टिकल ? यदि इसे थ्योरीटिकल ही माना जाएगा, केवल सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया जाएगा तो जीवन में इसका कोई उपयोग नहीं हो पाएगा। सिद्धान्तों से शास्त्र भरे पड़े हैं। मनुष्य उन्हें पढ़ लेता है, समझ लेता है और दूसरों को समझा देता है, पर सिद्धान्त केवल इसीलिए नहीं होते। उनका प्रैक्टिकल रूप भी सामने आना चाहिए, प्रयोग करके देखना चाहिए। वैज्ञानिक युग में प्रयोगशाला में सिद्ध हुए बिना किसी भी तत्त्व को लोकसम्मत बनाना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से धार्मिक और नैतिक सिद्धान्तों को भी प्रायोगिक रूप देने की अपेक्षा है। प्रयोग की भूमि सामूहिक भी हो सकती है, किन्तु व्यक्तिगत प्रयोग व्यक्ति की निजी सम्पदा बन जाता है।
महाराज जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछा-'महर्षे ! मैं देखना चाहता हूं, कैसे देखू? महर्षि ने कहा- 'सूरज का प्रकाश है, चांद की ज्योत्स्ना है, तारे, ग्रह और नक्षत्र भी हैं। इनकी ज्योति में तुम अपना पथ देखो।' महाराज जनक बोले- 'महर्षे! अमावस्या की काली रात हो और व्यक्ति मकान के भौंहरे में बैठा हो, वहां कैसे दिखाई देगा? चांद, ग्रह, नक्षत्र और तारों का प्रकाश भौंहरें तक पहुंचेगा नहीं।' याज्ञवल्क्य ने कहा- 'वहां शब्द की ज्योति से देखा जा सकता है। जिस दिशा से आवाज आए, उस दिशा में आगे बढ़ते रहना।' जनक का अगला प्रश्न था-'यदि वहां शब्द भी न हों तो? याज्ञवल्क्य का उत्तर था-'जहां बाहर की ज्योति उपलब्ध न हो, वहां अपने भीतर की ज्योति-आत्मज्योति से देखना। आत्म-ज्योति सबके पास होती है, पर उसका उपयोग कौन करता है?
पानी में मीन पियासी : २३
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