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के लिए संघर्ष कर रही है, कहीं स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए प्रयत्नरत है और कहीं व्यक्तित्व के शिखर पर आरोहण कर रही है । यह दूसरी बात है कि उसके व्यक्तित्व की परिभाषाएं बदल गई हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव हुआ है उसके पहनावे पर ।
एक राजस्थानी कहावत है- 'लुगाई ढकी ढूमी पूठरी लागे ' । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्री और पुरुष के पहनावे को तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो पुरुष के अंगोपांग अधिक आवृत्तं रहते हैं। भारतीय नारी की वेषभूषा पर विचार किया जाए तो उसके कई रूप सामने आते हैं। एक ओर मुस्लिम नारी के सामने बुर्के की बाध्यता है। अब इस परंपरा में भी बदलाव आ रहा है । दूसरी ओर हिन्दू समाज की महिलाएं खुले अंगों वाली वेषभूषा में रुचि रखती हैं। कुछ महिलाएं, जो रूढ़िवादी होने पर भी आधुनिकता के प्रभाव से बच नहीं पाई हैं । वे अपने चेहरे को आवृत रखती हैं पर पेट को अनावृत रखती हैं। लगता है, उनमें आवरणीय और अनावरणीय का विवेक कम है 1 अन्यथा अन्य अंगों को खुला रखकर मुंह को ढकने की बात बुद्धिगम्य ही नहीं होती ।
विज्ञापन संस्कृति में नारी - देह का जिस रूप में दुरुपयोग किया जा रहा है, उसके प्रतिरोध में महिला संगठन सक्रिय बनें, यह युग की अपेक्षा है । किन्तु इस अपेक्षा से आंखें मूंदकर विज्ञापनों, मॉडलों और फिल्मों की वेषभूषा को मानक मानकर उसे प्रचलित करना कहां की समझदारी है? महिलाओं की विकृत वेषभूषा को देखकर पुरुषों की वासना को उत्तेजना मिले और वे उनके साथ दुर्व्यवहार करने की चेष्टा करें, इसमें दोष किसका ?
समाज या सरकार महिलाओं को क्या सुरक्षा देगी? सबसे बड़ा सुरक्षा कवच है उनका अपना विवेक और संयम । साहस भी आवश्यक है । पर उससे पहले विवेक और संयम जरूरी है । वेषभूषा के सन्दर्भ में चालू प्रवाहपातिता को मोड़ देने के लिए समाज की जागरूक महिलाएं एक क्षण रुककर सोचें । उनका दायित्व है कि वे आवश्यकता, शालीनता और तथाकथित आधुनिकता के बीच रही भेदरेखा को पूरी गंभीरता से उभारकर महिला समाज को सही दिशा दें ।
२२ : दीये से दीया जले
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