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८. भ्रूण हत्या : एक प्रश्नचिह्न
हिंसा बढ़ रही है। आतंकवाद फैल रहा है। अपहरण की संस्कृति अपनी जड़ें जमा रही है। चोरी और लूटमार की घटनाएं थमी नहीं हैं। हत्याओं और आत्महत्याओं का सिलसिला चल रहा है। समाचार पत्रों में ये संवाद सुर्खियों में प्रकाशित होते हैं। हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाओं की स्थान-स्थान पर भर्त्सना होती है। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इनको उचित नहीं मानता। जिस युग में मानवाधिकार की चर्चा वैश्विक स्तर पर चलती हो, उस युग में असुरक्षा
और आतंक का वातावरण बहुत बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। जिस समय मजदूरों को बन्धक बनाने और बालश्रम की प्रवृत्तियों के औचित्य पर प्रश्नचिह्न खड़े हो रहे हों, उस समय बिना ही किसी अपराध के मनुष्य को गोलियों से भून देना किस मनोवृत्ति का परिचायक है?
हर मनुष्य को जीने का अधिकार है। मनुष्य ही क्यों, प्राणीमात्र जीने का अधिकारी है। किसी भी प्राणी के प्राणों को बलात् लूट लेना हिंसा है। हिंसा के दो रूप हैं- अपरिहार्य और परिहार्य । एक गृहस्थ को जीवनयापन के लिए जो हिंसा करनी पड़ती है, उससे बचना संभव नहीं है। अपरिहार्य या आवश्यक हिंसा को रोका नहीं जा सकता। किन्तु जिस हिंसा से बचा जा सकता है, जिसके बिना जीवन चल सकता है, वैसी हिंसा होती है तो लगता है कि मनुष्य क्रूर बन रहा है। ऐसी हिंसा को रोकना आवश्यक है। किन्तु जिस देश या समाज में अर्थहिंसा की तरह अनर्थहिंसा को भी वैध मान लिया जाता है, कानून के संरक्षण में निश्चिन्त होकर आदमी सरेआम हत्या करता हो, उस देश या समाज में संवेदनशीलता कहां रहेगी?
संसार में मात्स्य न्याय चलता है। बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है। शक्तिशाली पशु दुर्बल पशुओं को मार कर पेट भरते हैं। कुछ पशु
१६ : दीये से दीया जले
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