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स्तुतावशक्तिस्तव योगिनां न किं, गुणानुरागस्तु ममापि निश्चलः । इदं विनिश्चित्य तव स्तवं वदन्,
न बालिशो-ऽ प्येष जनोऽ पराध्यति॥ प्रभो! आपकी स्तवना कर सके, इतना सामर्थ्य योगियों में भी नहीं था। फिर भी आपके प्रति होने वाले गुणानुराग से प्रेरित होकर उन्होंने आपकी स्तुति की। वह गुणानुराग मेरे मन में भी है। यही सोचकर अबोध होने पर भी मैं आपकी स्तवना कर रहा हूं। ऐसा करके मैं अपराध का भागी नहीं बनूंगा।
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हमेचंद्र का अनुकरण करता हुआ मैं यही मानता हूं कि जब हमारे विशिष्ट शक्तिसम्पन्न पूर्वज भी अपने शुरू किए हुए काम पूरे नहीं कर सके तो मैं अपने कार्यों की संपूर्ति का मिथ्या अहं क्यों करूं?
जिज्ञासा-आज देश की जैसी स्थिति है, मूल्य एवं आदर्श टूट रहे हैं, राजनीति दुषित हो रही है, पाश्चात्य मूल्यों का प्रसार संस्कृति को नुकसान पहुंचा रहा है, आर्थिक विसंगतियां पनप रही हैं, ऐसे समय में आप देश को क्या संदेश देना चाहेंगे? क्या उजालों का सिमटना जारी रहेगा?
समाधान-अंधेरे के बाद उजाला और उजाले के बाद अंधेरा, यह प्रकृति का नियम है। कभी-कभी उजाले में अंधेरा हो जाता है। सघन कुहासा और मेघघटाएं उजाले को लील लेती हैं। अंधेरे में उजाले की बात भी अज्ञात नहीं है। विद्युत बल्बों और डेलाइटों का चमत्कार सबके सामने है। इस दृष्टि से विचार करें तो देश की क्या, विश्व की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। आज मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कम हुई है। आदर्श खंटी पर टंग गए हैं। राजनीति क्या, नीति मात्र दूषित हो गई है। न प्रशासन के पास शुद्ध नीति है, न व्यवसायियों के पास शुद्ध नीति है। और तो क्या, धार्मिकों की नीति पर भी प्रश्नचिह्न लग चुके हैं। देश की संस्कृति अपाहिज बनती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षा नीति की अस्थिरता। पाश्चात्य पैटर्न पर दी जाने वाली शिक्षा देश की जरूरतों को अनदेखा कर रही है। शिक्षा का उद्देश्य जीवन-स्तर को उन्नत बनाना नहीं, आर्थिक स्टैंडर्ड को ऊंचा करना
जिज्ञासा : समाधान : १८१
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