________________
५६. प्रशिक्षण अहिंसा का
युगीन समस्याओं में एक अहम समस्या है हिंसा। हिंसा अतीत में होती थी, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में नहीं होगी, ऐसा कहा नहीं जा सकता। जहां जीवन है, जीविका के साधनों की खोज है, वहां हिंसा भी है। पर वह हिंसा कभी समस्या नहीं बनती। उसके साथ समस्या का सूत्र तब जुड़ता है, जब संवेगों पर नियन्त्रण नहीं रह पाता। पशु-पक्षियों की बात एक बार छोड़ दी जाए तो मानना होगा कि हिंसा के बीज मनुष्य के नाड़ी-तंत्र
और ग्रंथितंत्र में हैं। इनको सुनियन्त्रित किए बिना हिंसा की समस्या का हल खोज पाना असंभव है।
मनुष्य सत्य, शिव और सौन्दर्य का उपासक है। सत्य क्या है? संसार का हर प्राणी अपने ढंग से जीना चाहता है, यह एक सचाई है। उसके जीने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करना हिंसा है। हिंसा का मूल स्रोत है पदार्थ के प्रति आसक्ति। आसक्ति जितनी सघन होगी, हिंसा उतनी ही भयंकर होगी। अनासक्त व्यक्ति के जीवन में हिंसा का प्रसंग उपस्थित ही नहीं होता। इसलिए हिंसा के वृक्ष पर आए पत्तों, फूलों और फलों तक ही सीमित न रहकर उसकी जड़ों तक ध्यान देने की अपेक्षा है। जब तक हिंसा की जड़ें नहीं खोदी जाएंगी, उसके दुष्परिणामों को रोकना कठिन है।
हिंसा के तीन रूप मुख्य हैं-आरम्भजा, विरोधजा और संकल्पजा। एक सामाजिक प्राणी आरम्भजा और विरोधजा हिंसा से बच नहीं सकता। वह खेती करता है, व्यवसाय करता है, जीविका के लिए साधन जुटाता है। इसमें होने वाली हिंसा अपरिहार्य है। सामाजिक जीवन में वैर-विरोध के प्रसंग भी आते हैं। विरोधी के आक्रमण को विफल करने के लिए अथवा उसकी ओर से संभावित हमले को टालने के लिए व्यक्ति हिंसा का सहारा लेता है। इसे
प्रशिक्षण अहिंसा का : १२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org