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________________ अपरिहार्यता न भी माना जाए, पर विवशता तो मानना ही होगा। जब तक व्यक्ति में जिजीविषा रहती है, वह अपने बचाव के लिए हर संभव उपाय काम में लेता है। हिंसा का तीसरा रूप है संकल्पजा । न कोई यौक्तिक उद्देश्य, न कोई विवशता और न कोई अपेक्षा। फिर भी मनुष्य हिंसा करता है। निरपराध मनुष्य को मारता है। क्यों? मारने का जनून सवार है उस पर। उसकी सोच का रास्ता बन्द है। बहुत बार व्यक्ति स्वयं नहीं जानता कि वह दूसरों के प्रति आक्रोश से क्यों भरा है? वह संवेगों के ऐसे अश्व पर सवार रहता है, जिसकी लगाम उसके हाथ में नहीं है। वह अश्व उसे पतन की कितनी ही गहरी खाई में ले जाकर गिरा दे, उसके बचने का कोई उपाय नहीं रहता। आज संसार में यही हो रहा है। __ हिंसा की समस्या का समाधान प्रतिहिंसा में नहीं है। यदि ऐसा होता तो अब तक हिंसा का जनाजा निकल गया होता। प्रतिहिंसा से हिंसा भड़कती है। उसका स्थायी समाधान है अहिंसा। हिंसा की तरह अहिंसा के बीज भी मनुष्य के मस्तिष्क में हैं। जब तक मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं किया जाएगा, हिंसा नए-नए मुखौटों में मनुष्य की शांति को भंग करती रहेगी। हिंसा को रोकने के लिए अहिंसा के प्रशिक्षण की अपेक्षा है। अहिंसा के प्रशिक्षण का अर्थ है-संवेगों को नियन्त्रित रखने का प्रशिक्षण, दृष्टिकोण को बदलने का प्रशिक्षण, हृदय को बदलने का प्रशिक्षण, जीवनशैली को बदलने का प्रशिक्षण और व्यवस्था को बदलने का प्रशिक्षण। जैन विश्वभारती, मान्य विश्वविद्यालय अहिंसा के प्रशिक्षण की योजना को क्रियान्वित करने के लिए कृतसंकल्प है। यदि यह योजना क्रियान्वित हो सकी तो हिंसा के गहराते बादलों को चीरकर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सूरज का प्रकाश फैलाया जा सकता है। १३० : दीये से दीया जले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
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