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इतनी टूटन आती जा रही है कि जीवन में बढ़ते जा रहे शून्य को भरने की उम्मीद ही समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में क्लब, रेस्तरां या किट्टी पार्टी जैसे माध्यमों से शन्य भरने का उपाय खोजा जाता है। यह आधनिक जीवनशैली की देन है और विशेष रूप से शहरी महिलाएं इससे प्रभावित हैं।
फ्लेट संस्कृति में पलने वाली, पति के ऑफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद घर में अकेली बैठी महिला बोरियत का अनुभव करती है। जिन महिलाओं को घरेलू उपकरण खरीदने के लिए पैसे की कमी नहीं होती। वे पार्टी में एकत्रित अर्थ राशि को खाने-पीने में उड़ा देती हैं। कुछ तथाकथित उच्च घरानों की महिलाएं तो सिगरेट और शराब से भी परहेज नहीं रखतीं। गपशप, मनोरंजन और भोजन के अतिरिक्त उस पार्टी से किसी भी महिला को कौन-सा लाभ होता है, विचारणीय विषय है। काश ! ऐसी महिलाएं समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतना जगाने के लिए अपने समय का उपयोग करतीं तो उन्हें अतिरिक्त आत्मतोष मिलता और महिलाओं की सृजनात्मक क्षमताओं से समाज लाभान्वित होता।
उच्चवर्गीय महिलाओं की देखादेखी आज साधारण परिवारों की महिलाएं भी इस प्रतिस्पर्धा में अपनी भागीदारी दे रही हैं। आधुनिक कहलाने की होड में घर और बच्चों की उपेक्षा कर इस नई संस्कृति को प्रोत्साहन देने वाली महिलाएं क्या अपने हाथों अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी नहीं चला रही हैं? उनका यह निरुद्देश्य उन्मुक्त आचरण उनकी बहू-बेटियों को कहां तक ले जाएगा ? क्या इस प्रश्न पर कभी उनका ध्यान केन्द्रित होता है? समय की गति बहुत तीव्र है। महिलाएं एक बार तटस्थ भाव से ऐसी प्रवृत्तियों की समीक्षा करें। पारिवारिक चरित्र को उदात्त बनाए रखने के लिए अपनी वृत्तियों का परिष्कार करें। समय और शक्ति का सम्यक् नियोजन करने के लिए परिवार और समाज के लिए सार्थक गतिविधियों पर ध्यान दें, यह आवश्यक
है।
१२८ : दीये से दीया जले
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