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मरण-प्रविभक्ति ८६
कोई भय नहीं लगता, क्योंकि वह घटना उसके साथ घटित हो चुकी है। जो हो चुका होता है और निःशेष रूप से हो चुका होता है, उसके विषय में कोई भय शेष नहीं रह जाता। भय तो उसी से है, जो घटित होने को शेष है। वह भय तब तीव्रतर या तीव्रतम हो जाता है, जबकि भावी घटना की अनुकूलता या प्रतिक्लता पूर्णतः अन्धकाराच्छन्न होती है।
जन्म और मरण, एक दूसरे के पूरक मृत्यु से घबराने का एक दूसरा कारण यह भी है कि अधिकांश व्यक्तियों का ध्यान जीवन पर ही केन्द्रित रहता है। मृत्यु के विषय में कुछ सोचा जा सकता है या सोचना आवश्यक है, इस पहलू से वे पूर्णत: अनभिज्ञ ही रहते हैं। इसलिए जिस आस्था और पुरुषार्थ के साथ वे जीवन की तैयारी करते हैं, मरण की नहीं कर पाते । मरण की तैयारी करने की बात अनेक लोगों को विचित्र लग सकती है, परन्तु गहराई से सोचने पर उसकी आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता। जीवन-पट को अपने पूर्ण विस्तार की स्थिति तक फैला देना ही पर्याप्य नहीं होता, उसे समेटने की कला भी आनी चाहिए। किसी भी कार्य का प्रारम्भ कर उसकी पूर्ति को भवितव्यता पर छोड़ देना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, तो फिर जीवन की पूर्ति को ही भवितव्यता पर क्यों छोड़ देना चाहिए? उसकी भी वैसे ही व्यवस्थित तैयारी की जानी चाहिए, जैसी की अन्य कार्यों में की जाती है । जागरण के पश्चात् जिस उत्साह से मनुष्य प्रातः काल अपना कार्य प्रारम्भ करता है, क्या थक जाने पर रात को उसी उत्साह से वह शयन की तैयारी नहीं करता? जागरण और शयन एक-दूसरे के पूरक होते हैं, वैसे ही जन्म और मरण भी।
जन्म के विषय में हम अपनी ओर से कुछ भी चुनाव नहीं कर सकते । स्थान, समय, प्रकार आदि सब कुछ दैवायत्त होता है, परन्तु मरण के विषय में यह बात उतनी कठोरता से लागू नहीं होती। कुछ रूपों में हम अपने मरण के विषय में चुनाव कर सकते हैं। महारथी कर्ण ने 'देवायतं कुले जन्म, मदायत्तं तु पौरुषम्' इस कथन के द्वारा यह स्पष्ट किया है, कि मेरा जन्म किस कुल में हो, यह तो दैवाधीन था, परन्तु जीवन में मुझे जो कुछ बनना था, उसके अनुरूप पौरुष करना मेरे अपने अधीन था। मैंने उसी पौरुष के बल पर अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया है। हम यहां इतना और बढ़ा सकते हैं कि जीवन जी लेने के पश्चात् हमें किस प्रकार से मरना है, इसका चुनाव करना भी हमारे अपने अधीन है। जीवन को सुचारु रूप से जीने के उपाय हमारे लिए उपयुक्त हैं, तो सुचारु रूप से उसकी समाप्ति-मरण के उपाय भी हसारे लिए गवेषणीय और उपयोजनीय हैं। जन्म ग्रहण करने के साथ ही इतना तो सुनिश्चित हो जाता है कि उसकी मृत्यु
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