________________
१० चिन्तन के क्षितिज पर
अवश्यम्भावी है। प्रश्न इतना ही शेष रह जाता है कि जीवन की तरह क्या हम अपनी मृत्यु को भी सफल बनाने की सोच सकते हैं ? मृत्यु की आकांक्षा : समाधिमरण साधारणतया अध्यात्म-क्षेत्र में जीवन और मरण, इन दोनों की ही आकांक्षा वर्जनीय है। इन दोनों की भावनाओं से ऊपर उठकर तथा इन दोनों में समान भाव साधकर रहना ही साधक के लिए उद्दिष्ट है। परन्तु विशिष्ट स्थितियों में मृत्यु की आकांक्षा भी विहित है। ऐसे समय में 'संलेखना' के द्वारा समाधिमरण प्राप्त करने को 'पण्डितमरण' कहा गया है। निराशा, भय, असफलता तथा कषायादि वश जीवन को समाप्त कर डालना 'आत्म-हत्या है। उसे शास्त्रकारों ने 'बाल मरण' कहा है। पण्डित-मरण या समाधि-मरण की प्रक्रिया उससे सर्वथा भिन्न होती है । मुमुक्षु के लिए शरीर का महत्त्व तभी तक है, जब तक वह समता मूलक संयम की आराधना में सहायक बनता है। तदनंतर जीर्ण वस्त्र के समान अनासक्त भाव से उसका विसर्जन ही श्रेयस्कर माना गया है। विषय-कषायादि में आसक्त मनुष्य जहां जन्म का उत्सव मनाते हैं, वहां संसार-विरक्त मनुष्य अपनी मृत्यु का उत्सव मनाते हैं । जो मृत्यु सांसारिकों के लिए भय का कारण बनती है ज्ञानियों के लिए वही प्रमोद का कारण बन जाती है।
नित्य मरण : तद्भव मरण सैद्धांतिक भाषा में आयुष्य, इन्द्रिय, मन, वचन, काया और श्वासोच्छ्वास-बल रूप प्राणों के संयोग का नाम जन्म है, तथा उनके सर्वथा क्षीण हो जाने का नाम मरण। जन्म के पश्चात् एवं मरण के पूर्व आयुष्य आदि का जो प्रतिक्षण भोग व निर्जरण होता रहता है, उसे जीवन कहा जाता है । दिगम्बराचार्य अकलंक ने प्रतिक्षण होने
१. जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः, ध्रुवं जन्म मृतस्य च
—गीता २-२७ २. (क) जीवियं नाभिकखेज्जा, मरणं नाविपत्थए। --आचारांग-८-८-४ (ख) नाभिनन्देत मरणं, नाभिनन्देत जीवितम् ।
-महाभारत, शांतिपर्व २४५-१५ ३. तओ काले अभिप्पेए, सड्ढ़ी तालिसमंतिए।
विणएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए।। - उत्तराध्ययन-५-३१ ४. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही । --गीता-२-२२ ५. संसारासक्तचित्तानां, मृत्युभीत्यै भवेन्नृणाम् ।
मोदायते पुनःसोऽपि, ज्ञान-वैराग्यवासिनाम् ।। -मृत्यु महोत्सव-१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org