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मरण - प्रविभक्ति
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वाले ह्रास की दृष्टि से इस जीवन को भी मरण का ही एक भेट माना है । उनके अनुसार मरण के दो भेद हैं- नित्य मरण और तद्भव मरण । प्रतिक्षण आयुष्य आदि का जो ह्रास होता है, वह नित्य-मरण है तथा प्राप्त शरीर का समूल नाश हो जाना तद्भव-मरण है ।"
विशुद्धि और उपाय
जीवन की विशुद्धि के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप विविध उपाय बतलाये गये हैं । इनके द्वारा आत्मा को भावित करते हुए प्रतिक्षण सावधानी पूर्वक आगे बढ़ने का निर्देश है । जीवन की स्वल्पकालिकता और बहुविघ्नयुक्तता सर्व - विदित है, अतः एक क्षण का भी प्रमाद किये बिना निरन्तर पूर्वकृत कर्मों की मलिनता को दूर करते रहना आवश्यक है । 2
जीवन- समाप्ति अथवा मरण-प्राप्ति का जब अवसर आता है, तब साधक उसका उपयोग भी आत्म-विशुद्धि के लिए करता है । वह कभी मृत्यु से घबराता नहीं । आत्म-विशुद्धि के मार्ग में जीवन-शुद्धि का जितना मूल्य है, उतना ही मरणशुद्धि का भी । जीवन शुद्धि के लिए किए गए सारे कार्यों का महत्त्व तब और भी बढ़ जाता है, जबकि मनुष्य अनशन के द्वारा समाधि मरण प्राप्त करता है । वस्तुतः निरन्तर अभ्यस्त शास्त्र ज्ञान चिरपालित व्रतों और बहुविध किए गए उग्र तपों का एक मात्र यही तो फल है कि वह आत्मानुभव करने के साथ-साथ शान्त भाव से समाधि मरण प्राप्त करे। ऐसा मरण भव सन्तति को समाप्त कर देने वाला होता है । जन्म और मृत्यु का अनादिकालीन प्रवाह उसके द्वारा या तो पूर्णतः अवरुद्ध हो जाता है या फिर अवरुद्ध होने के समीप तक आ जाता है ।
इत्वरक और मारणान्तिक
अनशन के दो भेद किये जाते हैं - इत्वरिक और मारणान्तिक । समय की अवधि
१. मरणं द्विविधं नित्य मरणं तद्भव मरणं चेति, तत्र नित्य-मरणं समय-समये स्वायुरादीनां निवृत्तिः तद्भव मरणं भवान्तर प्राप्त्यनन्तरोपश्लिष्टं पूर्वभव निगमनम् ।
- तत्त्वार्थ राजवार्तिक ७-२२
२. इइ इत्तरियम्मि आउए, जीवियए बहुपच्चवायए, बिहुणा हिरयं पुरे कडं, समयं गोयम ! मा पमायए ।
३. न संतसंति मरणंते, सीलवंता बहुस्सुया ।
४. तप्तस्य तपसश्चापि, पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना ।
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-- उत्तराध्ययन १०-३ - उत्तराध्ययन ५-२६
मृत्यु- महोत्सव- २३
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