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९२ चिन्तन के क्षितिज पर
पूर्वक जो आहार प्रत्याख्यान किया जाता है, वह 'इत्वरिक' और मरण पर्यन्त किया जाता है, वह 'मारणान्तिक' या यावत्कथिक कहलाता है। प्रथम में अवधि पूर्ण होने पर भोजन की आकांक्षा को अवकाश रहता है, परन्तु दूसरे में वैसा कोई अवकाश नहीं रहता।' इस यावत्कथित अनशन को संथारा या मारणान्तिक संलेखना भी कहा जाता है। इस उच्च साधना में साधक जीवन की कामना से ऊपर उठ जाता है और अपने सभी भावों को अध्यात्म में इतना लीन कर लेता है कि उसे आहार के अभाव में भी किसी प्रकार का क्लेश नहीं होता। ___मारणान्तिक संलेखना वस्तुतः मृत्यु को एक आह्वान है। जीवन, जो कि सभी प्राणियों को सर्वाधिक प्रिय होता है, उसे स्वेच्छापूर्वक छोड़कर मरण के सम्मुख जाना और उसको आदरणीय अतिथि की तरह निमंत्रित करना सहज कार्य नहीं है। ऐसा सहस्रों में तो क्या, लाखों में भी कोई एक ही कर सकता है । बहुधा तो यही देखा जाता है कि मृत्यु पीछा करती है, तब हर कोई किसी भी मूल्य पर अपने प्राण बचाने के लिए आतुर हो उठता है। उस समय उसकी स्थिति शिकारी द्वारा पीछा किये जाने वाले कातर हरिण की-सी होती है। परन्तु क्या मृत्यु का यही एक मात्र प्रकार है या इससे उच्च तथा आदर्श प्रेरित कोई अन्य प्रकार भी हो सकता है, इसका उत्तर जैन धर्म की अनशन-पद्धति देती है। इस पद्धति से मनुष्य कातर हरिण जैसी विवशता की मृत्यु के स्थान पर वीरोचित मृत्यु का वरण कर सकता है। यों तो युद्ध में प्राणाहुति देने वाले योद्धा को भी वीर कहा जाता है, परन्तु उसमें उसका आदर्श मरना नहीं, अपितु मारना होता है । फिर भी वह मरने का खतरा उठाता है । इस आधार पर उसे वीर कहा जाता है । अनशन में किसी अन्य को मारने की तो क्या, पीड़ा पहुंचाने तक की भावना भी नहीं होती। उसमें तो केवल अपनी आहुति देते हुए समाधिपूर्वक मरण को वरण किया जाता है, अत: यह वीर-वृत्ति अन्य सभी प्रकार की वीरवृत्तियों से पृथक् प्रकार की तो होती ही है. साथ ही पूर्णतः उदात्त और पवित्र भी होती है ।
उच्च और पवित्र ध्येय को सामने रखते हुए जीना उत्कृष्ट जीवन है, उसी प्रकार उसी ध्येय की प्राप्ति में मरना उत्कृष्ट मरण । जिन व्यक्तियों का यथा-तथा जी लेने मात्र में ही विश्वास होता है, वे अवसर आने पर भी मरण को स्वेच्छया
१. इत्तरिय मरणकालाय, अणसणा दुविहा भवे ।
इत्तरिया सावकंखा, निरवकंखा उ बिइज्जिया। उत्तराध्ययन ३०-६ २. आहारपच्चक्खाणे णं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदई, जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेणं न संकिलिस्सइ।
उत्तराध्ययन-२६-३५
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