SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरण- प्रविभक्ति काल एक तन्तुवाय है, जो हमारे जीवन के ताने के साथ मरण का बाना बुनता जा रहा है । यह बुनाई धीरे-धीरे आगे बढ़ती जाती है । थोड़ा-सा ध्यान दें, तो अपने ही शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों को देखकर हम इसे अच्छी तरह से समझ भी सकते हैं । जिस क्षण यह बुनाई समाप्त हो जायेगी, उसी क्षण हमारी भवयात्रा का यह एक 'थान' समेट-सहेज कर रख दिया जायेगा और फिर दूसरा तानाबाना प्रारम्भ कर दिया जायेगा । इस प्रकार 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' का यह क्रम अनादि काल से चलता आया है और आगे भी तब तक चलता रहेगा, जब तक कि उसे भंग कर देने वाली कोई स्थिति उत्पन्न नहीं कर दी जायेगी । जीवन, जन्म और मृत्यु जीवन का प्रारम्भ जन्म से होता है और पर्यवसान मृत्यु से । वस्तुतः ये तीनों एक ही प्रक्रिया के विभिन्न अंग हैं। इस प्रक्रिया के ओर तथा छोर को क्रमश: जन्म तथा मृत्यु कहा जाता है, जबकि मध्य को जीवन । समय की दृष्टि से जीवन की अवधि अपेक्षाकृत लम्बी होती है, किन्तु जन्म और मृत्यु की अत्यन्त छोटी । छोटी भी इतनी कि स्वयं जन्मने या मरने वाले को उस क्षण का कदाचित् भान तक हो पाना भी सम्भव नहीं है । सम्भवतः यही वह प्रबलतम कारण है, जिससे कीट-पतंग से लेकर मनुष्य तक सभी प्राणी जीवन से अत्यन्त प्यार करते हैं और हर सम्भव उपाय से उसकी सुरक्षा करते हैं । साधारणतया किसी भी प्राणी को यह पता नहीं होता कि जन्म से पूर्व वह कहां था और मृत्यु के पश्चात् कहां होगा । उसे यह पता भी नहीं होता कि वह कौन-सा कारण है, जिससे वह किसी अज्ञात क्षेत्र से आकर जन्म के द्वार से इस जीवन में प्रविष्ट हुआ है तथा क्यों फिर मृत्यु के द्वार से उसी अज्ञात क्षेत्र में पुनः चला जायेगा । उसके सम्मुख तो केवल जीवन ही प्रत्यक्ष होता है, अतः उसी की सुरक्षा में अपनी समग्र शक्ति लगा देने में वह अपना कल्याण समझता है । मृत्यु से वह इसलिए घबराता है कि वह उसे जीवन से विमुक्त कर देती है । जन्म से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy