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आज के परिप्रेक्ष्य में 'अहिंसा'
'अहिंसा' के विषय में मात्र आज के परिप्रेक्ष्य में चिंतन नहीं हो सकता । पिछले इतिहास को भी जानना होगा और उसके साथ-साथ भविष्य के लिए भी सोचना होगा । भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों समय को सम्मिलित कर सोचें तभी इस विषय की सार्थकता होगी। अहिंसा जीवन है और जीवन इन तीनों काल से प्रभावित होता है ।
अमृत है अहिंसा
वस्तुत: अहिंसा जीवन के लिए अमृत है । क्या अहिंसा के बिना जीवन का कोई अस्तित्व हो सकता है ? अहिंसा के बिना शान्त जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते । इसके बिना सह-अस्तित्व, सौहार्द और समन्वय जैसे मूलभूत तत्त्व भी समाज में विकसित नहीं होंगे। अहिंसा के आवरण से ही यह सब संभव है । इसीलिए अहिंसा के आचरण को जीवन में उतारना अमृतपान है । आज तक मनुष्य इसीलिए जीवित है कि उसने दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार किया है। एक साथ सैकड़ों लोग बैठकर ऐसे विषय पर चिन्तन कर सकते हैं । समस्याओं के बारे में सोच सकते हैं । एक साथ हम कुत्तों को इस तरह नहीं बिठा सकते । मिलकर बैठना तो क्या, गली के कोने पर भी कोई आता दिखाई दे तो उस गली के कुत्ते उस पर हमला बोल देंगे । कुत्तों का यह स्वभाव सुरक्षा की दृष्टि से उपयोगी माना जाता है। मगर सामूहिकता में इस दृष्टि से काम नहीं चलता । पारस्परिक सौहार्द के लिए अहिंसा आवश्यक होती है । सज्जनता अहिंसा के माध्यम से आती है ।
चिन्तन की गहराई में
बहुत लोग सोचते हैं कि मनुष्य लड़ता आया है । उसने आज तक हजारों लड़ाइयां लड़ी हैं। कई ऐसे झगड़े कि उनका विवरण सुनकर भी रोंगटे खड़े होते हैं । किन्तु इन सबसे निराश हों, ऐसी बात नजर नहीं आती। मनुष्य मिलकर अधिक रहा है उसके अनुपात में लड़ा कम है । लड़ाई का उद्गम भी तो शान्ति स्थापित करने को
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