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अहिंसा : एक अनुचितन ८३
अन्य किसी में नहीं, इसलिए यहां तक कहा गया है कि मूलत: अहिंसा ही एकमात्र व्रत है । शेष सारे व्रत तो उसी के संरक्षण के लिए हैं ।" तात्पर्य यह है कि धर्म का प्रत्येक रूप अहिंसा से ही प्रारंभ होता है । उसका सूक्ष्म या आन्तरिक स्वरूप है अप्रमत्तता तथा स्थूल या बाह्य रूप है प्राणियों के प्रति सदयता । स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करता हुआ साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है ।
शाश्वत एवं व्यवहार्य
अहिंसा नीति-धर्म न होकर आत्म-धर्म है, अतः वह शाश्वत धर्म है । नीतियां आवश्यकतानुसार बदलती रहती हैं । वे समाज की तात्कालिक समस्या को हल करने के लिए बनाई या बदली जाती हैं, किन्तु आत्म-धर्म सदा एक रूप में रहता है । न उसे कभी बनाया जा सकता है और न बदला । फिर भी प्रत्येक तीर्थंकर अपने 'युग में धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं और महाव्रत तथा अणुव्रत के रूप में अहिंसा-धर्म का उपदेश देते हैं । उसमें न धर्म नया होता है और न उसकी व्याख्या, परन्तु उस युग में उन महान् आत्माओं के द्वारा संस्थापित या व्याख्यात होने की अपेक्षा से उसे नया कह दिया जाता है ।
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वर्तमान अवसर्पिणी-काल में अहिंसा-धर्म की स्थापना में सर्वप्रथम भगवान ऋषभ का नाम आता है । वे इस युग के प्रथम योगी थे । उन्होंने स्वानुभूति के आधार पर पूर्ण अहिंसा-धर्म को आत्मसात् कर साधना के सोपानों पर चढ़ते हुए कैवल्य प्राप्त किया। उनके उपदेशानुसार अहिंसादि व्रतों की पूर्ण साधना करने वाले साधु और साध्वी तथा यथाशक्य साधना करने वाले श्रावक और श्राविका कहलाए । इन्हीं चार प्रकार के साधकों को आधार बनाकर नामकरण हुआ— 'चतुविध धर्मसंघ' अति प्राचीन प्रागैतिहासिक काल में संघात्मक स्थिति से अहिंसा की साधना करने का पौराणिक ग्रन्थों में यह प्रथम वर्णन मिलता है । '
दूसरा वर्णन भगवान नेमिनाथ का मिलता है । वे श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे । अपने विवाह के अवसर पर कन्यापक्ष वालों की ओर से भोज के लिए एकत्रित किये ये पशुओं को देखकर उनका मन कंपित हो उठा। भोजन के निमित्त की जाने वाली उस संभावित हिंसा को अपने लिए अनिष्ट मानकर उन्होंने विवाह करने से ही इनकार कर दिया। उसी समय वे वापस अपने नगर चले गये और अहिंसात्मक धर्मसंघ के प्रतिष्ठाता बने । उपनिषद् में घोर आंगिरस को श्रीकृष्ण का गुरु बतलाया गया है । उन्होंने श्रीकृष्ण को आत्मयज्ञ की शिक्षा दी और
१. एक्कच्चिय एत्थ वयं निद्दिट्ठ जिणवरेहि सव्वेहिं ।
पाणाइक्य - विरमण, मवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥
२. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्ष २, सूत्र ४३
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