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________________ अहिंसा : एक अनुचिंतन परम धर्म अहिंसा सब प्राणियों के लिए क्षेमकरी है, इसलिए उसे परम धर्म कहा जाता है। एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के सभी प्राणी जीने की आकांक्षा करते हैं, मरना किसी को प्रिय नहीं होता, इसीलिए हिंसा को घोर दुष्कर्म माना जाता है। अहिंसा की साधना सभी प्राणियों के साथ मित्रता की साधना है। भगवान महावीर ने स्थान-स्थान पर अपने उपदेश में इस बात को दुहराया है कि किसी भी प्राणी का वध मत करो। किसी को पीड़ा और परिताप भी मत पहुंचाओ, यहां तक कि किसी के प्रति बुरा मत सोचो। इससे भी आगे इतना और कि किसी के द्वारा किसी के प्रति किए गये बुरे चिन्तन की मन से भी अनुमोदना मत करो, क्योंकि वह भी हिंसा है। अहिंसा आत्म-गुण है और हिंसा आत्म-दोष, किन्तु प्राणिवध या प्राणिपरिताप आदि में मापदंड बनता है दूसरा प्राणी। इसलिए किसी के मरने या न मरने के आधार पर हिंसा या अहिंसा का जो विचार किया जाता है, वह स्थूल एवं व्यवहार-मात्र ही होता है । निश्चय के आधार पर आत्मा की प्रमत्त अवस्था को हिंसा तथा अप्रमत्त अवस्था को अहिंसा कहा जाता है। प्रथम धर्म जैन धर्म में अहिंसा व्रत को सब व्रतों में प्रथम और मूल माना गया है। जिस व्यक्ति में अहिंसा का अवतरण होता है, उसी में अन्य गुणों का अवतरण संभव है, १. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं __ तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं -दसवेआलियं ६/१० २. आया चेव अहिंसा, आया हिंसत् निच्छिओ एस जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो—विशेषावश्यक भाष्य ३५३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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