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________________ चिन्तन के क्षितिज पर मन्तव्यों के सहावस्थान का आधार खोज निकालना ही तो समन्वय है । मतवाद उसे कभी पसंद नहीं करता । वह एकाकी रहने में ही अपना कल्याण मानता है । ८० माध्यम समन्वय का प्रत्येक जैन को स्याद्वाद की घुट्टी के साथ ही समन्वय की भावना स्वतः प्राप्त हो जाती है । पूर्वाचार्यों ने उस भावना को मांजकर और भी उज्ज्वल तथा सुसंस्कृत बनाया है । फलस्वरूप उसे मांजते रहने का संस्कार भी सबको विरासत में प्राप्त हुआ है। इतना होने पर भी परस्पर के अनेक मतभेद ऐसे हैं, जो मतवाद की सीमा में प्रविष्ट हो चुके हैं। उनके समन्वयन तथा विलयन का अभी तक कोई मार्ग नहीं निकल पाया है । स्याद्वाद पर आस्था रखने वालों के लिए यह कोई गौरव की बात नहीं, अपितु लज्जा की ही बात है । - जैनेतर मान्यताओं के साथ समन्वय की बात करना तब तक एक बहुत बड़ा दम्भ ही होगा, जब तक कि स्वयं जैन मान्यताओं में समन्वय के सूत्र नहीं खोजे जाते । विभिन्न जैन सम्प्रदायों में परस्पर जितने भी प्रश्न खड़े हैं, उनको समाहित करना आज की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इन मतभेदों में अनेक ऐसे हैं, जो विलयन के योग्य हैं । वह तभी हो सकता है, जब कि पूर्णतः मतैक्य हो । अनेक मतभेद ऐसे भी हैं, जिनमें आज की स्थिति में पूर्ण मतैक्य की सम्भावना नहीं की जा सकती, फिर भी उनमें समन्वयन तो किया ही जा सकता है । उनके लिए उन अपेक्षाओं को खोजना होगा, जो उनके एकाधिकरण्य का आधार बन सकती हैं । जैन समाज अपने इस कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होने के लिए आज जागरूक दिखाई देता है । भारत के स्वतन्त्र होने के साथ ही उसकी इस जागरूकता में और निखार आया है । अनेक संस्थाएं इस कार्य को आगे बढ़ाने में अपना योगदान करने को उद्यत हैं । जैनाचार्य भी अपने इस उत्तरदायित्व के प्रति अधिक सचेष्ट हुए हैं । वे एकता और समन्वय के इस पथ पर जनता का पथ-दर्शन करने को उन्मुख हैं । सबका दायित्व आचार्यश्री तुलसी ने जैन ऐक्य के लिए प्रेरणा देते हुए प्रथम चरण न्यास के रूप में एक त्रिसूत्री योजना जैन समाज के सम्मुख रखी थी। उसकी प्राय: सर्वत्र अच्छी प्रतिक्रिया हुई, कार्य आगे बढ़ा। फलस्वरूप दिल्ली में दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी, इन तीन सम्प्रदायों के आचार्यों का सम्मेलन हुआ । संविग्न सम्प्रदाय के कोई आचार्य उस समय दिल्ली में उपस्थित नहीं थे । यदि चारों सम्प्रदाय कै प्रमुख आचार्य सम्मिलित हो पाते, तो वह सम्मेलन और भी व्यापक होता । फिर भी वह शुभारम्भ समन्वय और एकता की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने का कार्य तो था ही । उसमें सर्व सम्मति से कुछ निर्णय किये गये । यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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