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समन्वय की ओर ७६
व्यवहार पक्ष में भी उन्होंने उसकी अवतारणा की। कहा जाता है कि हेमचन्द्र एक बार राजा कुमारपाल के साथ सोमनाथ मंदिर में गये और वहां स्तुति करते हुए उन्होंने कहा-"भव बीज को अंकुरित करने वाले राग और द्वेष जिसके क्षय हो गये हों, उस देव को मैं नमस्कार करता हूं। उसका नाम चाहे फिर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जिन या अन्य कोई भी क्यों न हो।"
दर्शन और व्यवहार-दोनों ही पक्षों में जैनाचार्यों ने समवन्य की भावना को सुदढ़ किया है। जैनाचार्यों ने मतभेदों का पोषण कभी किया ही नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर इतना तो स्पष्ट ही है कि मतभेद होने पर भी उन्होंने अपने कथन की अपेक्षाओं को समझाने के साथ-साथ दूसरों के कथन की अपेक्षाओं को समझने का भी प्रयास किया है । मतवाद उनके जीवन का लक्ष्य कभी नहीं रहा । उन्होंने अपना लक्ष्य साधना को ही बनाया, परन्तु उसकी सिद्धि के मार्ग में पगडण्डियों की तरह अनेक मतवादों ने जन्म लिया, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इसे क्षेत्र और काल की अनिवार्यता भी कहा जा सकता है तथा आवश्यकता और परिस्थितियों की उत्प्रेरणा भी। इस सबके बावजूद मतवाद को गौण मानते हुए उन्होंने मुख्यतः साधना पर ही बल दिया। पूर्णता के लिए मत, परम्परा या वेश आदि को नहीं, किन्तु साधना से उद्दीप्त आत्मा के समताभाव को ही उन्होंने मूल कारण माना । "जैन हो या बौद्ध, श्वेताम्बर हो या दिगम्बर या फिर इन सबसे भिन्न किसी अन्य मत या सम्प्रदाय को मानने वाला ही क्यों न हो, यदि उसने अपने आपको समभाव से भावित किया है तो निश्चय ही उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी। आचार्य हरिभद्र के ये शब्द मतवाद के स्थान पर साधना को ही पुष्ट करने वाले हैं।
प्रक्रिया गौण, साधना मुख्य साधना की लम्बी प्रक्रिया में अनेक स्थानों पर मतभेद हो सकता है, किन्तु जब तक वह गौण और साधना मुख्य रहती है, तब तक कोई भय की बात नहीं । मतभेद सर्वथा बुराई ही पैदा नहीं करता, वह तत्त्व-बोध में सहायक भी हो सकता है। शर्त एक ही है कि अपने पर उसका नशा नहीं होना चाहिए। नशा होते ही मतभेद मतवाद का रूप ले लेता है और फिर समन्वय के द्वार बन्द हो जाते हैं। दो विभिन्न
१. "भव बीजांकुर जनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य,
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।" २. "सेयंबरो व आसंबरो व बुद्धो व तह अन्नो वा,
समभाव भाविअप्पा, लहइ मोक्खं न संदेहो।"
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