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________________ स्याद्वाद क्या है ? ७५ है तो अपने पुत्र का पिता भी हो सकता है । इसमें कोई विरु द्धता नहीं आ सकती, क्योंकि अपेक्षाएं भिन्न हैं। स्याद्वाद : चार दृष्टियां स्याद्वाद के मतानुसार प्रत्येक पदार्थ 'स्व' द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'सत्' है तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'असत्' । इसे सरलतापूर्वक यों समझा जा सकता है-एक घड़ा स्व-द्रव्य मिट्टी की अपेक्षा से सत्-अस्तित्व युक्त है, पर द्रव्य-वस्त्रादि इतर वस्तुओं की अपेक्षा से असत् है अर्थात् घड़ा, घड़ा है, वस्त्र नहीं। द्रव्य के समान ही किसी बात की सत्यता में क्षेत्र की अपेक्षा भी रहती है। कोई घटना किसी एक क्षेत्र की अपेक्षा से ही सत्य हो सकती है । जैसे—भगवान् महावीर का निर्वाण 'पावा' में हुआ। भगवान् के निर्वाण की यह घटना 'पावा' क्षेत्र की अपेक्षा से ही सत्य-सत् है, परन्तु यदि कोई कहे 'भगवान् का निर्वाण राजगृह में हुआ तो यह बात असत्य ही कही जाएगी। द्रव्य और क्षेत्र के समान ही पदार्थ की सत्ता और असत्ता बताने के लिए काल की भी अपेक्षा है, जैसे-आचार्यश्री तुलसी ने अणुवत-आन्दोलन का सूत्रपात संवत् २००५ में किया। इसके अतिरिक्त किसी काल का कथन किया जाए तो वह अणुव्रत-आन्दोलन के सम्बन्ध में सत्यता प्रकट नहीं कर सकता। इसी प्रकार वस्तु की सत्यता में भाव भी अपेक्षित हैं, जैसे--पानी में तरलता होती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तरलता नामक भाव से ही पानी की सत्ता पहचानी जा सकती है, अन्यथा तो वह हिम, वाष्प या कुहरा ही होता, जो कि पानी नहीं, किन्तु उसके रूपांतर हैं । स्व-धर्मों की सत्ता : परधर्मों की असत्ता उपर्युक्त प्रकार से हम जान सकते हैं कि प्रत्येक पदार्थ की सत्ता स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से ही है, परद्रव्य, परकाल और परभाव की अपेक्षा से नहीं । यदि परद्रव्य आदि से भी उसकी सत्ता हो सकती तो एक ही वस्तु सब वस्तु होती और सब क्षेत्र, सब काल और गुणयुक्त भी होती अर्थात् एक घड़ा मिट्टी का भी कहा जा सकता और सोने-चांदी, लोहे आदि का भी। कानपुर का भी कहा जा सकता और दिल्ली का भी। संवत् २००५ का भी कहा जा सकता और संवत् २००० का भी। जलाहरण के काम में भी लिया जा सकता और पहनने के काम में भी। । परन्तु ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें स्वधर्मों की सत्ता के समान ही परधर्मों की असत्ता भी विद्यमान है । स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से घट में 'अस्ति' शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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