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________________ ७४ चिन्तन के क्षितिज पर मूल्य का है ?- उत्तरदाता को भिन्न-भिन्न उत्तर देने के लिए ही प्रेरित करती हैं। किसी एक उत्तर से सारी जिज्ञासाएं शान्त नहीं हो सकतीं। साधारण लोक-व्यवहार में अपेक्षा भेद से कथन का यह प्रकार जितना मौलिक, उचित और सत्य है, उतना ही दार्शनिक क्षेत्र में भी। उपर्युक्त वस्त्र-सम्बन्धी ज्ञान में एकान्तवादिता सत्य से जितनी दूर ले जा सकती है, तत्त्वज्ञान सम्बन्धी एकान्तवादिता भी उतनी ही दूर ले जाती है, अतः दार्शनिक क्षेत्र में भी 'स्वावाद' (अपेक्षावाद) का प्रयोग आदरणीय ही नहीं, अनिवार्य भी है। जैनेतर दार्शनिकों का तर्क जैनेतर दार्शनिकों का स्याद्वाद के विषय में एक खास तर्क यह रहा है कि यदि पदार्थ 'सत्' है तो 'असत्' कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार नित्य-अनित्य, सामान्यविशेष, वाच्य-अवाच्य आदि परस्पर विरोधी धर्म एक ही समय में एक पदार्थ में कैसे टिक सकते हैं ? इसी तर्क के आधार पर शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जैसे विद्वानों ने 'स्यादवाद' को 'पागल का प्रलाप' कहकर इसकी उपेक्षा की, राहुल सांकृत्यायन ने 'दर्शन-दिग्दर्शन' में बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों के आधार पर दही, दही भी है और ऊंट भी, तो दही खाने के समय ऊंट खाने को क्यों नहीं दौड़ते ? इस आशय का कथन कर स्याद्वाद का उपहास किया है। डॉ० एस. राधाकृष्णन् ने इसे 'अर्द्ध सत्य' कहकर त्याज्य बताया है, इसी प्रकार किसी ने इसे 'छल' और किसी ने 'संशयवाद' बतलाया है। परन्तु यह सब तो 'प्रत्येक विभिन्न कथन के साथ विभिन्न अपेक्षा होती हैं'–स्याद्वाद के इस सूत्र को हृदयंगम न कर सकने के कारण हुआ है । बद्धमूल धारणा तथा जैनेतर ग्रन्थों में जैन के लिए किये गए कथन को सत्य मानकर चलना भी इसमें सहायक हुए हैं । अन्यथा अपेक्षा भेद से 'सत्' अर्थात् 'है' और 'नहीं है' का कथन विरुद्ध मालूम नहीं देना चाहिए। भिन्न हैं अपेक्षाएं वस्त्र की दुकान पर किसी ने दुकानदार से पूछा---'यह वस्त्र सूत का है न?' दुकानदार ने उत्तर दिया-'हां साहब, यह सूत का है। दूसरे व्यक्ति ने आकर उसी वस्त्र के विषय में पूछा-'क्यों साहब, यह वस्त्र रेशम का है न ? दुकानदार बोला-'नहीं, यह रेशम का नहीं है।' यहां कथित वस्त्र के लिए 'यह सूत का है', यह बात जितनी सत्य है, उतनी ही 'यह रेशम का नहीं है' यह भी सत्य है । एक ही वस्त्र के विषय में सूत की अपेक्षा से 'सत्' अर्थात् 'है' और रेशम की अपेक्षा से 'असत्' अर्थात् 'नहीं है' का कथन किसको अखर सकता है ? 'स्याद्वाद' भी तो यही कहता है । 'सत् है तो वह असत् कैसे हो सकता है ?' यह शंका तो ठीक ऐसी ही है कि 'पुत्र है तो वह पिता कैसे हो सकता है ?' परन्तु वह अपने पिता का पुत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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