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________________ ७२ चिन्तन के क्षितिज पर स्यात् शब्द का प्रयोग क्यों? कोई एक शब्द वस्तु के सम्पूर्ण धर्मों की अभिव्यक्ति कर सके-ऐसा सम्भव नहीं है, अतः भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा भिन्न-भिन्न धर्मों का प्रतिपादन कर हम वस्तु सम्बन्धी अपना अभिप्राय दूसरों के सामने रखते हैं। जिस धर्म का प्रतिपादन करते हैं, उसके लिए तद्बोधक शब्द का प्रयोग करते हैं और अवशिष्ट विरोधी तथा अवरोधी समस्त धर्मों के लिए प्रतिनिधि स्वरूप 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका भाव होता है-कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त और अनेक धर्म भी इस वस्तु में विद्यमान हैं सही, परन्तु इस समय में उन सबकी सूचना ही कर सकते हैं, कथन नहीं। हमारी इस सूचना से ज्ञाता अवशिष्ट धर्मों को भी कथ्यमान धर्म के समान वस्तु का अंग समझे, पर साथ ही यह भी समझे कि इस समय हम उसका ध्यान मुख्यतया अमुक कथ्यमान धर्म की ओर ही आकृष्ट करना चाहते हैं। कभी-कभी 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किये बिना भी वस्तु-धर्म का प्रतिपादन किया जाता है, परन्तु वहां भी कथन के अभिप्राय में कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त धर्मों का निराकरण करने की बात नहीं आनी चाहिए, तभी वस्तु-सम्बन्धी वास्तविकता का आदर किया जा सकता है। सकलादेश : विकलादेश उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात हो जाता है कि हम वस्तु का प्रतिपादन करते समय कभी सम्पूर्ण वस्तु के विषय में कहना चाहते हैं और कभी केवल उसके एक अंश मात्र के विषय में। वाक्य में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करते समय सम्पूर्ण वस्तु का चित्र हमारे सामने होता है। उसी को दूसरे के सामने रखना चाहते हैं अर्थात् एक कथ्यमान धर्म को मुख्य रूप से और शेष धर्मों को 'स्यात्' के प्रतिनिधित्व में गौण रूप से कहना चाहते हैं। इस प्रकार के कथन को दर्शन-शास्त्र में 'प्रमाण-वाक्य' या 'सकलादेश' कहा जाता है । परन्तु जब हम वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में तो कहते हैं, परन्तु शेष धर्मों के विषय में न तो किसी प्रतिनिधि शब्द का प्रयोग कर समर्थन करते हैं और न किसी निवारक शब्द का प्रयोग कर खण्डन करते हैं, केवल कथ्यमान धर्म को कहकर शेष के लिए तटस्थ मौनावलम्बी हो जाते हैं। यह कथन 'नयवाक्य' या 'विकलादेश' कहलाता है । दूसरे शब्दों में उपर्युक्त बात को यों भी कहा जा सकता है--वस्तु सम्बन्धी हमारी सम्पूर्ण दृष्टि प्रमाण और एक दृष्टि या दृष्टिकोण नय कहलाता है। वैचारिक अहिंसा का प्रतीक प्रमाण-वाक्य कहें चाहे नय-वाक्य, दोनों ही स्थितियों में उद्देश्य यही होता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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