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स्याद्वाद क्या है ?
स्याद्वाद : शब्द मीमांसा स्यादवाद, जैन दर्शन के मन्तव्य को भाषा में उतारने की पद्धति को कहते हैं। 'स्याद्वाद' के 'स्यात्' पद का अर्थ है, अपेक्षा या दृष्टिकोण और 'वाद' पद का अर्थ है-सिद्धान्त या प्रतिपादन । दोनों पदों से मिलकर बने इस शब्द का अर्थ हुआकिसी वस्तु, धर्म, गुण या घटना आदि का किसी अपेक्षा से कथन करना "स्याद्वाद' है।
आपेक्षिक सत्य पदार्थ में जो अनेक आपेक्षिक धर्म हैं, उन सबका यथार्थ ज्ञान तभी सम्भव हो सकता है जबकि उस अपेक्षा को सामने रखा जाए। दर्शन-शास्त्र में नित्य-अनित्य, सत्-असत्, एक-अनेक, भिन्न-अभिन्न, वाच्य-अवाच्य आदि तथा लोक-व्यवहार में छोटा-बड़ा, स्थूल-सूक्ष्म, दूर-समीप, स्वच्छ-मलिन, मूर्ख-विद्वान् आदि अनेक ऐसे धर्म हैं, जो आपेक्षिक हैं। इनका तथा इन जैसे अन्य किसी भी धर्म या गुण का जब हम भाषा के द्वारा कथन करना चाहते हैं, तब वह उसी हद तक सार्थक हो सकता है, जहां तक हमारी अपेक्षा उसे अनुप्राणित करती है। जिस अपेक्षा से हम जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उसी समय उसी पदार्थ के किसी दूसरे धर्म की अपेक्षा से दूसरे शब्द का प्रयोग भी किया जा सकता है। वह भी उतना ही सत्य होगा, जितना कि पहला । सारांश यह कि एक पदार्थ के विषय में अनेक ऐसी बातें हमारे ज्ञान में सन्निहित होती हैं, जो एक ही समय में सारी की सारी समान रूप में सत्य होती हैं । फिर भी वस्तु के इस पूर्ण रूप को किसी दूसरे व्यक्ति के सामने रखते समय हम इसे विभक्त करके ही रख सकते हैं । भाषा की कुण्ठता के कारण ऐसा करने के लिए हम बाधित हैं।
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