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६६ चिन्तन के क्षितिज पर में आगे बढ़ता है और कार्य की स्थूलता के पीछे छिपी कारण की सूक्ष्मता को जान जाता है।
सागर और गागर दार्शनिकों ने इसी स्थूलता और सूक्ष्मता के दृष्टिकोण को लेकर प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद कर दिए । एक वह प्रत्यक्ष, जो सतही या बहिरंग होता है तथा दूसरा वह, जो अन्तरंग होता है । दार्शनिक शब्दों में उन्हें क्रमश: सांव्यवहारिक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। प्रथम प्रत्यक्ष में इन्द्रिय और मन के माध्यम से प्राप्त ज्ञान आता है, जबकि द्वितीय में केवल आत्मा के माध्यम से प्राप्त अतीन्द्रिय ज्ञान। ___ हमारे सम्मुख सर्वांग अनुभूति की विकट समस्या इसीलिए है कि इन्द्रियों
और मन से ज्ञात वस्तु में जो अज्ञातांश है और जो कि बहुलांश है, उसे जानने के लिए हमें कोई साधन उपलब्ध नहीं है। उपलब्ध साधनों से जितना जान सकते हैं, वह केवल नाममात्र को ही जानना कहा जा सकता है, क्योंकि वह बहुत अल्प होता है।
अनन्त धर्मात्मक वस्तु की अखण्ड अवस्थिति को यदि हम एक सागर की उपमा दें, तो हमारे इन्द्रिय-ज्ञान की खण्डश: अनुभूति को एक घड़ा कह सकते हैं। सागर की विशालता के सम्मुख घड़े की क्या बिसात है ? सागर की इयत्ता का कोट्यंश भी घड़े की समग्र इयत्ता से बड़ा होता है। गागर में सागर भर देने की बात कवि-कल्पना के अतिरिक्त और कहीं सत्य नहीं होती। अभिव्यक्ति की क्षमता वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता हमारी अनुभूति के लिए एक समस्या है, तो हमारी अनुभूति भी हमारी अभिव्यक्ति के लिए कोई छोटी समस्या नहीं है। वस्तु के सागर में से भरी हुई अनुभूति की यह गागर भी हमारी अभिव्यक्ति के लिए एक सागर ही बन जाती है। वस्तु के साथ माध्यम-निरपेक्ष सीधे सम्बन्ध अर्थात आत्मज्ञान की बात को एक क्षण के लिए अलग भी छोड़ दें, तो मात्र इन्द्रिय-ज्ञान की यथावस्थित अभिव्यक्ति भी हमारे लिए सम्भव नहीं है । कहने का तात्पर्य यह है कि जितना है, उतना जानने की और जितना जानते हैं, उतना बता पाने-शब्दों में उतारने की क्षमता हमारे पास नहीं है। हम गुलाब और रजनीगन्धा की सुगन्ध को पृथक्-पृथक् जानते तो हैं, परन्तु क्या पार्थक्य है, यह किसी को समझा नहीं सकते । पार्थक्य ही क्यों, मूल गन्ध को समझाने के लिए भी हमारे पास शब्द नहीं हैं।
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