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वस्तु, अनुभूति और अभिव्यक्ति ६५ ज्ञान में विपर्यय आ जाता है। उदाहरण रूप में आंखों को ही लीजिए । एक ही वृक्ष समीप से बहुत बड़ा दिखाई देता है और दूर से बहुत छोटा; जब कि हमारे समीप या दूर से उसके फैलाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार समानान्तर चलने वाली रेल की सीधी पटरियों के मध्य में खड़े होकर देखने वालों को समीप में वे वस्तु चौड़ी फिर क्रमशः संकरी होती हुई एक बिन्दु पर मिलती हई दिखाई देती हैं, जबकि सत्य यह होता है कि उनकी दूरी हर स्थान पर समान होती है। इसी प्रकार अन्य सभी इन्द्रियों के बारे में समझा जा सकता है। सारा का सारा इन्द्रिय-ज्ञान हमारी इन्द्रिय-सापेक्ष अनुभूतियों से सम्बद्ध होता है, न कि वस्तु के मूल रूप से । इन्द्रियां जो अपने निष्कर्ष निकालती हैं, हम उन्हें मान लेने को बाध्य हैं। लेकिन यह इन्द्रियों के साथ हमारा समझौता है, वस्तु का नहीं। उसके साथ यह बाध्यता नहीं है कि इन्द्रियों की अनुभूति के अनुरूप ही वह अपने को रखे।
सतही ज्ञान उपर्यक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु-सत्य को समझ पाना सहज नहीं, अपितु बहुत ही कठिन है। सत्य की सतह पर ही हमारी सारी शक्ति खपती रहती है। उसके अन्तरंग तक प्रवेश पाने का अवसर प्रायः आता ही नहीं। किसी मकान को देखने वाला व्यक्ति यह आशंका करता ही कब है कि उसने तो केवल मकान का ऊपर वाला पलस्तर ही देखा है। वह तो साधिकार यही घोषणा करता है कि उसने उस मकान को अच्छी तरह से देखा है । सत्य के इस सतही या पलस्तर ज्ञान को मात्र व्यावहारिक या स्थूल ज्ञान ही मानना चाहिए । परमार्थ उससे बहुत दूर होता है । इन्द्रिय और मन के साधनों से हम परमार्थ तक नहीं, व्यवहारार्थ तक ही पहुंच पाते हैं। __इसका यह अर्थ नहीं कि इन्द्रिय-ज्ञान सत्य ज्ञान नहीं होता । होता है, परन्तु यह भी नहीं कि वह पूर्ण सत्य होता है। उससे आगे भी उसी इन्द्रिय-ज्ञान सत्य का बहत-सा अंश जानने को अवशिष्ट रह जाता है। डॉक्टर रोगी के शरीर को ऊपर से देखकर जब रोग का निर्णय नहीं कर पाता, तब वह सूक्ष्मता से देखने के लिए अनेक प्रकार के इन्द्रियेतर यंत्रों का प्रयोग करता है । गहराई तक देखना हो तो 'एक्स-रे' का भी प्रयोग करता है । उस प्रक्रिया से वह उसे देखता है, जिसे कोरी आंखों से नहीं देख पाया था।
पशू का कार्य केवल उतने मात्र से चल जाता है जो कि उसे अपनी आंखों से दिखाई देता है, किन्तु मनुष्य का नहीं। वह आंखों से परे भी देखना चाहता है। वह कार्य-जगत् की स्थूलता में ही रुक कर नहीं रह जाता, कारण-जगत् की खोज
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