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वस्तु, अनुभूति और अभिव्यक्ति ६७
वस्तु और शब्द
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वस्तु के साथ शब्द का यदि कोई सम्बन्ध है, तो वह हमारी कल्पना के माध्यम से ही है । मूलत: कोई सम्बन्ध नहीं है । ये एक प्रकार के लेबल हैं, जो हमारी सुविधा के लिए हमने वस्तुओं पर चिपका दिये हैं । इसलिए कोई भी शब्द वस्तु का प्रतिनिधित्व नहीं, केवल वस्तु के प्रति हमारी अनुभूति का ही प्रतिनिधित्व करता है । तात्पर्य यह कि शब्द के द्वारा हम वस्तु की नहीं, किन्तु उसके प्रति अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति करते हैं । 'नीम कड़वा है' इस वाक्य से हम इतना ही बता सकते हैं कि हमारी जिह्वा को नीम के स्वाद की कैसी अनुभूति होती है। नीम की वास्तविकता क्या है, यह उससे नहीं जाना जा सकता। ऊंट, art आदि अनेक पशुओं की अनुभूति में वह कड़वा न होकर मीठा हो सकता है । सांप काटे मनुष्य की अनुभूति में भी वह मीठा होता है । साधारण मनुष्यों में वह किसी को अधिक कड़वा लगता है, किसी को कम। तो फिर यही कहा जा सकता है कि नीम का वास्तविक स्वाद क्या है - यह हम में से किसी को भी ज्ञात नहीं है ।
वास्तविकता से हम कुछ दूर तो तभी हो जाते हैं, जब वस्तु को हमारी अनुभूति की परिधि से देखते हैं । परन्तु तब और भी दूर हो जाते हैं जबकि उस अनुभूति के अनेक अंशों में से एक बार किसी एक को ही शब्द परिधान पहना पाते हैं । 'नीम कड़वा है' इस वाक्य के द्वारा हम नीम-विषयक मात्र अपनी जिला की ही अनुभूति व्यक्त कर पाते हैं, जबकि शेष इन्द्रियों की भी तद्विषयक अनुभूति हमारे पास होती है । उसके आकार, वर्ण, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों की अनेक बातें जानते हुए भी उस वाक्य में हम उन्हें व्यक्त नहीं कर पाते। उन सबकी अभिव्यक्ति के लिए हमें पृथक्-पृथक् वाक्यों का आश्रय लेना होता है । इस प्रकार किसी भी एक वस्तु विषयक गुणों की अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करते समय हमें ढेर सारे वाक्यों का प्रयोग करना होता है। हमें वस्तुगत उन गुणों की क्रमिक अभिव्यक्ति के लिए बाध्य होना पड़ता है, जबकि सत्य यह होता है कि वे सब वहां युगपत् अवस्थित होते हैं ।
शब्द कहीं, अर्थ कहीं
इतना ही क्यों, हमारी अभिव्यक्ति की और भी अनेक कमजोरियां हैं । जिस भाषा का हम प्रयोग करते हैं, उसमें कहीं एक वस्तु के लिए अनेक शब्द स्थापित हैं, तो क्वचित् अनेक वस्तु के लिए एक ही शब्द से काम चलाना होता है ।
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