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दिशा-बोध
भारतीय समाज में विवाह संस्कार को सर्वाधिक मंगलमय कार्य माना जाता है। पारिवारिक परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए यह अनिवार्य और आवश्यक है। इसमें भिन्न परिवारों के भिन्न लिंगी दो व्यक्तियों-वर और वधू को समाज की साक्षी से सह-जीवन की स्वीकृति दी जाती है। उक्त अवसर पर आनन्द और उल्लास के वातावरण में दोनों व्यक्ति पति-पत्नी के रूप में स्नेह-सूत्र में बंध जाते हैं, साथ ही उन दोनों के परिवारों तथा मित्रजनों के मानस भी स्नेहसिक्त हो जाते हैं।
अभिभावकों का कर्तव्य एक नया घर बसता है । गृहस्थ-जीवन की एक नयी गाड़ी संसार की दौड़ में सम्मिलित हो जाती है। पति-पत्नी उस गाड़ी में दो चक्कों के समान होते हैं । इसीलिए प्रत्येक विवाह के साथ यह अपेक्षा जुड़ी रहती है कि दोनों चक्के समान हों। माता-पिता आदि अभिभावकों का मुख्यत: यही कर्तव्य माना जाता है कि वे शील, गुण और वय आदि की उपयुक्त समानता देखकर ही सम्बन्ध निश्चित करें, अन्यथा चक्कों में विषमता रहेगी और गाड़ी समभूमि पर भी हिचकोले खाती चलेगी । सम्भव है, कोई जोर का हिचकोला उसे उलट या तोड़ ही डाले । वह स्थिति किसी के लिए भी शोभास्पद नहीं कही जा सकती।
विवाह से जुड़ी समस्या विवाह-संस्कार की मंगलमयता को आजकल की कुछ प्रवृत्तियों ने दूषित कर दिया है। फलत: आनन्द और उल्लास का वातावरण चिन्ता और निराशा से घिरने लगा है। उन प्रवृत्तियों को समाज के कर्णधारों तथा समर्थ व्यक्तियों के द्वारा हतोत्साहित किये जाने के बजाय प्रोत्साहित ही किया जाता रहा है, अतः मध्यमवर्ग वालों के लिए विवाह एक समस्या बनता जा रहा है। मनुष्य की व्यावसायिक वृत्ति ने विवाह को भी व्यवसाय का एक अंग बना डाला है। लड़के और लड़कियों
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